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वाल्मीकि रामायण -भाग 30

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वाल्मीकि रामायण -भाग 30

दण्डकारण्य में पहुँचकर रावण और मारीच ने श्रीराम के आश्रम को देखा। तब मारीच का हाथ पकड़कर रावण बोला, “मित्र! यह केले के वृक्षों से घिरा हुआ राम का आश्रम दिखाई दे रहा है। अब तुम शीघ्र ही वह कार्य करो, जिसके लिए हम यहाँ आए हैं।” यह सुनकर मारीच ने मृग जैसा रूप बना लिया। इस चितकबरे मृग की त्वचा का रंग सुनहरा था और इसके पूरे शरीर पर सफेद और काले रंग की बूँदें थीं। इसके कान नीलकमल जैसे और गरदन कुछ ऊँची थी। उसके खुर वैदूर्यमणि के समान व सींगों का ऊपरी भाग इन्द्रनील मणि के समान प्रतीत होता था। सीता को लुभाने के लिए वह आकर्षक मृग बार-बार उस आश्रम के आस-पास विचरने लगा। कभी केले के बगीचे में, तो कभी कनेर के कुञ्ज में वह घूमता रहता था। कभी वह खेलता-कूदता, कभी भूमि पर बैठ जाता, कभी वृक्षों के कोमल पत्तों को खाने लगता, तो कभी मृगों के झुण्ड के पीछे-पीछे कुछ दूरी तक जाकर पुनः एक-दो घड़ी बाद बड़ी उतावली के साथ आश्रम के आस-पास लौट आता था।

उसके मन में यही अभिलाषा थी कि किसी भी प्रकार सीता की दृष्टि मुझ पर पड़ जाए। सीता का ध्यान आकृष्ट करने के लिए वह उनके आस-पास आकर कई पैंतरे दिखाने लगता था और कभी उनके चारों ओर चक्कर लगाता था। अन्य मृग उसे कौतूहल से देखकर कभी पास आते थे, पर सूंघकर दूर भाग जाते थे। राक्षस होने के कारण वैसे तो मारीच मृगों के वध में तत्पर रहता था किन्तु इस समय अपने वास्तविक रूप को छिपाए रखने के लिए वह अन्य मृगों के स्पर्श करने पर भी उन्हें कोई हानि नहीं पहुँचा रहा था। उसी समय सीता फूल चुनने के लिए निकली थीं। कनेर, अशोक और आम के वृक्षों को पार करती हुई वे आगे बढ़ीं। तभी सहसा उन्होंने उस अद्भुत मृग को देखा, जिसका अंग-प्रत्यंग बड़ा मनोहर था। सीता ने ऐसा विचित्र मृग कभी नहीं देखा था। उसे देखते ही सीता की आँखें आश्चर्य से फैल गईं और वे बड़ी उत्सुकता से उसे निहारने लगीं। उस मृग को देखकर सीता बहुत प्रसन्न हुईं और अपने पति श्रीराम व देवर लक्ष्मण को शस्त्र लेकर आने के लिए पुकारने लगीं। सीता के बुलाने पर दोनों भाई वहाँ पहुँचे और उस मृग पर भी उनकी दृष्टि पड़ी। उसे देखकर लक्ष्मण को कुछ संदेह हुआ। उन्होंने कहा, “भैया! मुझे तो लगता है कि इस मृग के रूप में वह मायावी राक्षस मारीच ही आया है। वह अनेक प्रकार की मायाएँ जानता है। रघुनन्दन! इस पृथ्वी पर कहीं भी ऐसा विचित्र मृग नहीं है। अतः निःसंदेह यह राक्षसी माया ही है।

लक्ष्मण को बीच में ही रोककर सीता ने बड़े हर्ष के साथ श्रीराम से कहा, “आर्यपुत्र! यह मृग बड़ा सुन्दर है। इसने मेरे मन को मोह लिया है। आप इसे ले आइये। यह हम लोगों का मन बहलाएगा। इसका रूप अद्भुत है। यदि यह जीवित ही आपके हाथों में आ जाए, तो वनवास की अवधि के बाद हम इसे अपने साथ अयोध्या ले चलेंगे।

सीता की बातों को सुनकर और मृग के अद्भुत रूप को देखकर श्रीराम का मन भी विस्मित हो उठा। उन्होंने कहा, “लक्ष्मण! सीता के मन में इस मृग को पाने की प्रबल इच्छा जाग उठी है। इसका रूप है भी बहुत सुन्दर। ऐसा मृग तो देवराज इन्द्र के नन्दनवन में भी नहीं होगा।

“ राजा लोग तो बड़े-बड़े वनों में अपने आनंद के लिए मृगों का शिकार सदा ही करते आये हैं। अतः इस मृग को मारने में कोई अधर्म नहीं है और यदि सचमुच ही यह मायावी राक्षस मारीच हो, तब भी मुझे इसका वध करना ही चाहिए। मारीच ने अनेक श्रेष्ठ मुनियों की हत्या की है, अतः उसका वध करना मेरा कर्तव्य ही है।”…..“लक्ष्मण! आज मैं इस मृग को मार डालूँगा या इसे जीवित ही पकड़ लाऊँगा। तुम अस्त्र और कवच आदि से सुसज्जित हो जाओ और आश्रम में ही रहकर तुम सीता की रक्षा करना। ऐसा कहकर श्रीराम ने सोने की मूँठवाली तलवार कमर में बाँध ली और पीठ पर दो तरकस बाँध, हाथों में धनुष लिए वे उस मृग की ओर दौड़े।

उन्हें देखते ही वह मृग भयभीत होकर छलाँगें मारता हुआ भागा। कभी वह पेड़ों की ओट में छिप जाता, कभी बहुत तेज गति से भागने लगता और कभी ऐसी ऊँची छलाँग लगाता, मानो आकाश में उड़ रहा हो। इस प्रकार भागता, छिपता हुआ वह श्रीराम को उनके आश्रम से बहुत दूर तक खींचकर ले गया।

अब श्रीराम कुछ कुपित हो उठे और थककर एक वृक्ष की छाया में हरी घास पर खड़े हो गए। कुछ ही क्षणों बाद अन्य मृगों के झुण्ड में उन्हें वही मृग पुनः दिखाई दिया। श्रीराम को देखते ही वह पुनः भागा।  तब क्रोध में भरे हुए श्रीराम ने तरकस से एक तेजस्वी बाण निकालकर अपने धनुष पर रखा और धनुष को जोर से खींचकर वह तीर छोड़ दिया। उस बाण ने मृगरूपी मारीच के शरीर को चीरकर उसके हृदय को भी विदीर्ण कर दिया। पीड़ा से चीत्कार करता हुआ वह उछलकर भूमि पर गिर पड़ा। अब उसने अपने उस कृत्रिम शरीर को त्याग दिया और मरने से पहले रावण के आदेश को पूरा करने के लिए वह श्रीराम जी के स्वर में ही हे सीते! हे लक्ष्मण!कहकर पुकारने लगा। उसे आशा थी कि यह स्वर सुनकर सीता लक्ष्मण को भी आश्रम से भेज देगी और रावण निष्कंटक होकर सीता का अपहरण कर लेगा।

जब मारीच ने अपना हिरण वाला शरीर उतार फेंका और अपने वास्तविक रूप में आ गया, तो उसे देखते ही श्रीराम को लक्ष्मण की बात याद आई और सीता की चिन्ता सताने लगी। वे सोचने लगे, “अरे! लक्ष्मण ने जैसा कहा था, वास्तव में यह तो मारीच ही था। अब यह उच्च स्वर में हा सीते! हा लक्ष्मण!पुकार कर मरा है, इसे सुनकर न जाने सीता और लक्ष्मण की कैसी दशा हो जाएगी।यह सोचकर उनके रोंगटे खड़े हो गए और विषाद के कारण उनके मन में तीव्र भय समा गया। तत्काल ही वे बड़ी उतावली अपने आश्रम की ओर दौड़ पड़े।

उधर वन में हुआ आर्तनाद जब आश्रम में सीता ने सुना, तो अपने पति जैसे स्वर को सुनकर वे बड़ी चिंतित हुईं। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, “भैया! तुम शीघ्र जाकर श्रीराम की सुध लो। उन्होंने बड़े आर्त स्वर से हम लोगों को पुकारा है। इससे मैं बहुत घबरा रही हूँ। ऐसा लगता है कि अवश्य ही वे राक्षसों के वश में पड़ गए हैं। तुम शीघ्र जाकर उनकी रक्षा करो।”

यह सुनकर भी लक्ष्मण नहीं गए क्योंकि श्रीराम ने उन्हें आश्रम में ही रुककर सीता की रक्षा करने का आदेश दिया था। यह देखकर सीता क्षुब्ध हो गईं। वे क्रोध में भरकर लक्ष्मण से बोलीं, “सुमित्राकुमार! तुम जिनकी रक्षा के लिए वन में आए हो, जब वे श्रीराम आज संकट में हैं…..ऐसा कहकर वे शोक में आँसू बहाने लगीं

तब लक्ष्मण उनसे बोले, “देवी! आप विश्वास करें, नाग, असुर, गन्धर्व, देवता, दानव तथा राक्षस सब एक साथ मिलकर भी आपके पति को परास्त नहीं कर सकते। तीनों लोकों में ऐसा कोई नहीं है, जो युद्ध में श्रीराम का सामना कर सके। बड़े-बड़े राजाओं की सारी सेना मिलकर भी अकेले श्रीराम के आगे नहीं टिक सकती। अतः आप उनके लिए चिंतित न हों।

श्रीराम ने मुझे आपकी रक्षा का भार सौंपा था। खर का और जनस्थान के अन्य राक्षसों का वध होने के कारण इन निशाचरों का हमसे वैर हो गया है। अतः मैं आपको इस आश्रम में अकेला छोड़कर वन में नहीं जा सकता। उस मृग को मारकर आपके पति शीघ्र ही लौट आएँगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। आपने जो स्वर सुना था, वह उनका नहीं है। निश्चय ही वह किसी राक्षस की ही माया थी। आपको उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।

अब मैं वहीं जाता हूँ, जहाँ भैया श्रीराम गए हैं। इस वन के देवता (मानस मे तुलसीदास जी ने लक्ष्मणरेखा कहा है) अब आपकी रक्षा करें क्योंकि मेरे सामने अब जो भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे मैं संशय में पड़ गया हूँ कि श्रीराम के साथ वापस यहाँ लौटने पर मैं आपको सकुशल देख सकूँगा या नहीं।”….ऐसा कहकर लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर सीता को प्रणाम किया और वे आश्रम से चले गए।

लक्ष्मण के जाते ही दुष्ट रावण को अवसर मिल गया और वह संन्यासी का वेश बनाकर सीता के समीप आया। उसने शरीर पर गेरुए रंग का साफ-सुथरा वस्त्र लपेट रखा था। उसके सिर पर शिखा (चोटी), हाथ में छाता और पैरों में जूते थे। उसने बायें कंधे पर एक डंडा रखकर उसमें कमण्डल लटका रखा था।सीता को अकेली पाकर रावण उनके सामने जाकर खड़ा हो गया और उनसे कुछ कहने के प्रयास में वह वेदमन्त्र का उच्चारण करने लगा।

लक्ष्मण के चले जाने पर सीता को आश्रम में अकेली पाकर दुष्ट रावण परिव्राजक का रूप धारण करके सीता के पास गया। उसने शरीर पर गेरुए रंग का वस्त्र लपेट रखा था। उसके सिर पर शिखा (चोटी), हाथ में छाता और पैरों में जूते थे। उसने बायें कंधे पर एक डंडा रखकर उसमें कमण्डल लटका रखा था।

सीता जैसी अनुपम सुन्दरी को देखते ही कामी रावण का मन दुष्ट विचारों से भर गया। उस समय सीता अपने पति की चिंता में आँसू बहा रही थीं। उनका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए वह वेदमन्त्र का उच्चारण करने लगा और सीता की प्रशंसा करता हुआ विनीत भाव से बोला, “सोने जैसे रंग वाली और रेशमी वस्त्र धारण करने वाली हे सुन्दरी! तुम कौन हो? तुम्हारा मुख, नेत्र, हाथ और पैर सब अति सुन्दर हैं। कहीं तुम कोई अप्सरा अथवा कामदेव की पत्नी रति तो नहीं हो? तुमने अपने सौन्दर्य से मेरे मन को मोह लिया है।”

“पृथ्वी पर तुमसे अधिक रूपवती स्त्री मैंने आज तक नहीं देखी है। देवता, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर जातियों में भी कोई स्त्री तुम जैसी सुन्दर नहीं है। लेकिन तुम्हारा ऐसा अनुपम रूप, यौवन, सौन्दर्य और इस दुर्गम वन में निवास! ऐसा क्यों? तुम यहाँ रहने योग्य नहीं हो। यह स्थान तो इच्छानुसार रूप धारण करने वाले भयंकर राक्षसों का है। तुम्हें तो रमणीय राजमहलों, समृद्ध नगरों और सुन्दर उद्यानों में रहना और विचरना चाहिए। तुम कौन हो और इस भयानक वन में कैसे आ गई?”

रावण की बातें सुनकर सीता ने उसकी ओर देखा। तब उनका ध्यान गया कि ब्राह्मण के वेश में एक अतिथि द्वार पर आया है। सीता ने सम्मानपूर्वक उसे बैठने का आसन और पैर धोने के लिए जल दिया। फिर उन्होंने अपना परिचय दिया तथा कैकेयी के वरदान व अपने वनवास का कारण बताया। इसके बाद उन्होंने रावण को ब्राह्मण समझकर उससे कहा, “ब्रह्मन्! भोजन तैयार है, आप ग्रहण कीजिए।”

ऐसा कहकर सीता ने राम और लक्ष्मण को ढूँढने के लिए वन में चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, किन्तु वे दोनों भाई उन्हें कहीं दिखाई नहीं दिए। इधर रावण ने भी सीता की ओर देखा व उनके अपहरण का निश्चय और दृढ़ कर लिया।  रावण के कलुषित विचारों से अनभिज्ञ सीता ने उसका परिचय पूछा। तब उस दुष्ट निशाचर ने अत्यंत कठोर वाणी में उत्तर दिया, “सीते! जिसके नाम से देवता, असुर और मनुष्यों सहित तीनों लोक थर्रा उठते हैं, मैं वही राक्षसराज रावण हूँ।”

“सुन्दरी! तुम्हें देखने के बाद अब मेरा मन किसी और स्त्री में नहीं लगता है। मैंने इधर-उधर से अनेक स्त्रियों का अपहरण किया है। तुम उन सबमें मेरी पटरानी बनो। मेरी राजधानी का नाम लंका है। वह समुद्र के बीच एक पर्वत पर बसी हुई है। वहाँ रहकर तुम मेरे साथ आनंद करना। फिर तुम्हें वनवास का यह कष्ट नहीं भोगना पड़ेगा। तुम यदि मेरी भार्या बन जाओ, तो पाँच हजार दासियाँ तुम्हारी सेवा में नियुक्त रहेंगी।”

यह सुनकर सीता को भीषण क्रोध आया। उस नीच रावण का तिरस्कार करते हुए उन्होंने कहा, “मेरे पति का पराक्रम अतुलनीय है। मैं तन-मन से केवल उन्हीं की अनुरागिणी हूँ। पापी निशाचर! अवश्य ही तेरी मृत्यु निकट आ गई है, तभी तू श्रीराम की प्रिय पत्नी पर कुदृष्टि डाल रहा है। श्रीराम जब हाथ में धनुष-बाण लेकर रोष से खड़े हो जाएँगे, तब काल भी तेरी रक्षा नहीं कर सकेगा।”ऐसा कहकर सीता रोष में काँपने लगीं।

तब उनके मन में भय उत्पन्न करने के लिए रावण ने पुनः अपने पराक्रम का और भी बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया। सीता का मन ललचाने के लिए वह उन्हें लंका के वैभव और समृद्धि के बारे में भी बताने लगा। जब सीता ने फिर भी उसका तिरस्कार किया, तो रावण की आँखें क्रोध से लाल हो गईं, तो संन्यासी का सौम्य रूप त्यागकर वह दस मुखों और बीस भुजाओं वाले अपने वास्तविक विकराल रूप में आ गया।

रावण ने बड़े कठोर वचनों में सीता को डाँटा और उन्हें लाकर रथ पर बिठा दिया। अगले ही क्षण रावण ने अपना रथ आगे बढ़ाया और आकाश-मार्ग से वह सीता को लेकर उड़ चला। यह देखकर सीता दुःख से व्याकुल हो गईं और जोर-जोर से श्रीराम और लक्ष्मण को पुकारने लगीं, “हे रघुनन्दन! हे महाबाहु लक्ष्मण! यह राक्षस मुझे छीनकर ले जा रहा है, आप लोग इस पापी को दण्ड क्यों नहीं देते?

हाय! आज कैकयी का मनोरथ पूर्ण हो गया क्योंकि श्रीराम की धर्मपत्नी होकर भी आज मैं एक राक्षस द्वारा छीनी जा रही हूँ। हे वन के वृक्षों! तुम श्रीराम से कहना कि सीता को रावण हरकर ले गया। हे माँ गोदावरी! तुम श्रीराम को बताना कि रावण ने सीता का अपहरण कर लिया।”

यह सब कहते-कहते विलाप करती हुई सीता ने अचानक गिद्धराज जटायु को देखा। तब वह करुण क्रन्दन करती हुई बोलीं, “आर्य जटायु! देखिये यह पापी राक्षस मुझे निर्दयतापूर्वक ले जा रहा है। आप इस क्रूर निशाचर को नहीं रोक सकते क्योंकि यह बड़ा बलवान, दुस्साहसी और शस्त्र-सज्ज है, किन्तु आप श्रीराम और लक्ष्मण को अवश्य बताना कि रावण मेरा अपहरण करके मुझे ले गया है।”

उस समय जटायु पेड़ पर सोया हुआ था। सीता की करुण पुकार सुनते ही उसने आँख खोली, तो सामने रावण और सीता जाते हुए दिखाई दिए। तब पेड़ पर बैठे हुए जटायु ने रावण को समझाया कि “जिस प्रकार पराये पुरुष से अपनी पत्नी की रक्षा की जाती है, उसी प्रकार प्रत्येक पुरुष को दूसरों की स्त्रियों का भी सम्मान करना चाहिए और उनकी भी रक्षा करनी चाहिए। परायी स्त्री का स्पर्श करना अनुचित है और सभी स्त्रियों की रक्षा करना तो राजाओं का विशेष कर्तव्य है। अतः तुम ऐसा निंदनीय कर्म मत करो। सीता का अपमान करके श्रीराम से बैर मत लो। तुम अपनी ही मृत्यु को आमंत्रण दे रहे हो। मेरे जीते-जी तुम सीता को नहीं ले जा सकोगे।

यह सुनकर अहंकारी रावण क्रोध से जटायु की ओर दौड़ा। तब उन दोनों में घनघोर युद्ध होने लगा। रावण ने जटायु पर नालीक, नाराच और अन्य पैने बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। जटायु ने सब अस्त्रों का आघात सह लिया और अपने तीखे नखों वाले पंजों से मार-मारकर रावण के शरीर में अनेक घाव कर दिए। तब रावण ने ऐसे भयंकर बाण जटायु पर छोड़े, जिनमें काँटे लगे हुए थे। उनसे जटायु का शरीर क्षत-विक्षत हो गया। फिर भी जटायु ने अपने प्राणों की चिंता न करके पूरे वेग से रावण पर आक्रमण किया व अपने दोनों पैरों से मारकर उसके धनुष को तोड़ डाला। अपने पंजों और पंखों की मार से उन्होंने रावण का कवच भी छिन्न-भिन्न कर दिया, उसके रथ में लगे पिशाचों जैसे गधों को भी मार डाला और बड़े वेग से चोंच मारकर रावण के सारथी का सिर भी धड़ से अलग कर दिया।

रथ के घोड़े और सारथी के मर जाने से रावण भी सीता के साथ ही पृथ्वी पर गिर पड़ा। लेकिन वृद्ध जटायु को थका हुआ देखकर तुरंत ही उसने सीता को पकड़ा और पुनः आकाश-मार्ग की ओर उड़ चला। उसके सब अस्त्र-शस्त्र नष्ट हो गए थे, किन्तु एक तलवार अभी भी उसके पास शेष थी। उसे जाता देखकर जटायु ने पुनः उड़कर रावण का पीछा किया और बड़े वेग से उसकी पीठ पर जा बैठा। वह अपने तीखे नखों से रावण को खरोंचने लगा, चोंच मारने लगा और उसके बाल पकड़कर उखाड़ने लगा।

उन दोनों का युद्ध बहुत देर तक चलता रहा। अंततः रावण ने सहसा अपनी तलवार निकाली और जटायु के दोनों पंख और पैर काट डाले। पंख कटते ही पक्षीराज जटायु भूमि पर गिर पड़े…

नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।

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जय श्रीराम

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Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

1 Comment

  • सीता हरण का वाल्मीकि रामायण में विस्मयकारी विवरण है।।। जटायु युद्ध का वर्णन भी हृदयस्पर्शी है।।।
    जय सियाराम।।।

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