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भगवान श्री राम की प्राण – प्रतिष्ठा

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भगवान श्री राम की प्राण – प्रतिष्ठा
भगवान श्री राम लला…. लगभग पांच सौ वर्ष के पश्चात… अपनी जन्म स्थली अवधपुरी में विराजमान हो गए हैं। क्या है प्राण प्रतिष्ठा की प्रक्रिया…..? आईए जानते हैं।
मूर्तिकार की कल्पना…..उंगलियों की जादूगरी…..छेनी की हजारों चोट…. और रेती की घिसाई…। और इस तरह महीनों की तपस्या के बाद वह मूर्ति उभरती है….जिसमें देवता निवास करते हैं। पर मूर्ति से देवता होने की प्रक्रिया भी इतनी सहज कहाँ…?
सोच कर देखिये….पूरा संसार बड़े बड़े पत्थरों… पहाड़ों से.. भरा हुआ है। बड़े बड़े पहाड़ तोड़ कर…. सड़क के नीचे डाल दिये जाते हैं….घर की दीवालों में जोड़ दिए जाते हैं….फर्श में लगा दिए जाते हैं। पर उन्ही में किसी पत्थर का भाग्य उसे देवता बना देता है न…? सौभाग्य-दुर्भाग्य का भेद केवल मनुष्य के लिए ही नहीं….हर जीव जन्तु,….नदी तालाब, माटी.. पत्थर के लिए.. भी होता है।
प्राण प्रतिष्ठा के पूर्व देव की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है। ऐसा क्यों? इसका शास्त्रीय उत्तर तो विद्वान जानें, मुझे जो लौकिक उत्तर समझ में आता है, वह सुनिये।
जब तक प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती… तब तक वह केवल मूर्ति होती है, पर प्रतिष्ठा होते ही वे देव हो जाते हैं। तो देव की पहली दृष्टि किस पर पड़े? कौन सहन कर पायेगा वह तेज…? क्या कोई सामान्य जन…? कभी नहीं….। तो इसका सबसे सहज उपाय ढूंढा गया….. कि देव की पहली दृष्टि सीधे देव पर ही पड़े…। इसीलिए आंखों की पट्टी खोलते समय उनके सामने आईना लगा दिया जाता है। इस भाव से कि आपन तेज सम्हारो आपै … इस तरह देव की पहली दृष्टि उन्ही पर पड़ती है, वे अपना तेज स्वयं ही सम्हारते हैं। कितना सुंदर विधान है न?
प्राणप्रतिष्ठा के पूर्व विग्रह को सर्वप्रथम जलाधिवास, फलाधिवास, घृताधिवास और फिर शय्याधिवास में रखा जाता है। एक रात जल में निवास होता है, फिर अन्न से ढक कर रखा जाता है, फिर पुष्पादि से…. घी और फिर शय्या… जहाँ जहाँ जीवन है, जीवन के लिए आवश्यक तत्व हैं, वहाँ वहाँ से तेज प्राप्त करती है मूर्ति! उसके बाद होता है देव का आवाहन, और फिर वे विराजते हैं विग्रह में… इसके बाद खुलता है पट। लम्बी चरणबद्ध प्रक्रिया है… देवत्व यूँ ही नहीं आता।
कल कहीं एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न पढ़ा। किसी ने लिखा था कि मनुष्य ईश्वर की प्राण प्रतिष्ठा कैसे कर सकता है? बकवास प्रश्न है यह। मनुष्य मूर्ति में ही नहीं, सृष्टि के कण कण में देवता को देख सकता है, पर इसके लिए हृदय में श्रद्धा होनी चाहिये। जैसे बिना आंखों के आप संसार को नहीं देख सकते, वैसे हीं बिना श्रद्धा के आप ईश्वर को नहीं देख सकते। हम देख लेते हैं… देवत्व गङ्गा में… वृक्षों में….पहाड़ों में… अग्नि में…, आकाश में… यह हमारी श्रद्धा की शक्ति है, हमारी संस्कृति की शक्ति है, हमारे धर्म की शक्ति है।
बाकि एक बात और! इस बार केवल एक मन्दिर में देव की प्राण प्रतिष्ठा ही नहीं हो रही। यह युगपरिवर्तन का उद्घोष है, यह भारतीय स्वाभिमान की पुनर्प्रतिष्ठा है। देव के पट खुलने की प्रतीक्षा पूर्ण हुई। अब धर्म के जयघोष का समय होगा, सनातन के विजय का होगा, असंख्य योद्धाओं की तृप्ति का होगा…
जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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