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पापा का प्यार

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“`पाँच दिन की छुट्टियां बिता कर जब ससुराल पहुँची तो पति घर के सामने स्वागत में खड़े थे।
अंदर प्रवेश किया तो छोटे से गैराज में चमचमाती गाड़ी खड़ी थी स्विफ्ट डिजायर!

मैंने आँखों ही आँखों से पति से प्रश्न किया तो उन्होंने गाड़ी की चाबियाँ थमाकर कहा:-“कल से तुम इस गाड़ी में कॉलेज जाओगी प्रोफेसर साहिबा!”

“ओह माय गॉड!!”

ख़ुशी इतनी थी कि मुँह से और कुछ निकला ही नही। बस जोश और भावावेश में मैंने तहसीलदार साहब को एक जोरदार झप्पी देदी और अमरबेल की तरह उनसे लिपट गई। उनका गिफ्ट देने का तरीका भी अजीब हुआ करता है।

सब कुछ चुपचाप और अचानक!!

खुद के पास पुरानी इंडिगो है और मेरे लिए और भी महंगी खरीद लाए।

6 साल की विवाहित जीवन में इस व्यक्ति ने न जाने कितने गिफ्ट दिए। गिनती करती हूँ तो थक जाती हूँ। ईमानदार है रिश्वत नही लेते । मग़र खर्चीले इतने कि उधार के पैसे लाकर गिफ्ट खरीद लाते है।

लम्बी सी झप्पी के बाद मैं अलग हुई तो गाडी का निरक्षण करने लगी। मेरा फसन्दीदा कलर था। बहुत सुंदर थी।

फिर नजर उस जगह गई जहाँ मेरी स्कूटी खड़ी रहती थी।
हठात! वो जगह तो खाली थी।

“स्कूटी कहाँ है?” मैंने चिल्लाकर पूछा।

“बेच दी मैंने, क्या करना अब उस जुगाड़ का? पार्किंग में इतनी जगह भी नही है।”

“मुझ से बिना पूछे बेच दी तुमने??”

“एक स्कूटी ही तो थी; पुरानी सी। गुस्सा क्यूँ होती हो?”

उसने भावहीन स्वर में कहा तो मैं चिल्ला पड़ी:-“स्कूटी नही थी वो।

मेरी जिंदगी थी। मेरी धड़कनें बसती थी उसमें। मेरे पापा की एकमात्र निशानी थी मेरे पास।

मैं तुम्हारे उपहार का सम्मान करती हूँ मगर उस स्कूटी की कीमत पर नही। मुझे नही चाहिए तुम्हारी गाड़ी। तुमने मेरी सबसे प्यारी चीज बेच दी। वो भी मुझसे बिना पूछे।'”

मैं रो पड़ी। शोर सुनकर मेरी सास बाहर निकल आई।

उसने मेरे सर पर हाथ फेरा तो मेरी रुलाई और फुट पड़ी।

“रो मत बेटा, मैंने तो इससे पहले ही कहा था।

एक बार बहु से पूछ ले। मग़र बेटा बड़ा हो गया है। तहसीलदार!! माँ की बात कहाँ सुनेगा?

मग़र तू रो मत।

और तू खड़ा-खड़ा अब क्या देख रहा है वापस ला स्कूटी को।”
तहसीलदार साहब गर्दन झुकाकर आए मेरे पास।

रोते हुए नही देखा था मुझे पहले कभी। प्यार जो बहुत करते हैं।

याचना भरे स्वर में बोले:- सॉरी यार! मुझे क्या पता था वो स्कूटी तेरे दिल के इतनी करीब है। मैंने तो कबाड़ी को बेचा है सिर्फ सात हजार में। वो मामूली पैसे भी मेरे किस काम के थे? यूँ ही बेच दिया कि गाड़ी मिलने के बाद उसका क्या करोगी? तुम्हे ख़ुशी देनी चाही थी आँसू नही। अभी जाकर लाता हूँ। ” फिर वो चले गए।

मैं अपने कमरे में आकर बैठ गई। जड़वत सी।
पति का भी क्या दोष था।
हाँ एक दो बार उन्होंने कहा था कि ऐसे बेच कर नई ले ले।

मैंने भी हँस कर कह दिया था कि नही यही ठीक है।
लेकिन अचानक स्कूटी न देखकर मैं बहुत ज्यादा भावुक हो गई थी। होती भी कैसे नही।

वो स्कूटी नही “औकात” थी मेरे पापा की।

जब मैं कॉलेज में थी तब मेरे साथ में पढ़ने वाली एक लड़की नई स्कूटी लेकर कॉलेज आई थी। सभी सहेलियाँ उसे बधाई दे रही थी। तब मैंने उससे पूछ लिया:- “कितने की है?
उसने तपाक से जो उत्तर दिया उसने मेरी जान ही निकाल ली थी:-” कितने की भी हो? तेरी और तेरे पापा की औकात से बाहर की है।”

अचानक पैरों में जान नही रही थी। सब लड़कियाँ वहाँ से चली गई थी मगर मैं वही बैठी रह गई। किसी ने मेरे हृदय का दर्द नही देखा था। मुझे कभी यह अहसास ही नही हुआ था कि वे सब मुझे अपने से अलग “गरीब”समझती थी। मगर उस दिन लगा कि मैं उनमे से नही हूँ।
घर आई तब भी अपनी उदासी छुपा नही पाई। माँ से लिपट कर रो पड़ी थी। माँ को बताया तो माँ ने बस इतना ही कहा” छिछोरी लड़कियों पर ज्यादा ध्यान मत दे! पढ़ाई पर ध्यान दे!”

रात को पापा घर आए तब उनसे भी मैंने पूछ लिया:-“पापा हम गरीब हैं क्या?”
तब पापा ने सर पे हाथ फिराते हुए कहा था “हम गरीब नही हैं बिटिया, बस जरासा हमारा वक़्त गरीब चल रहा है।”

फिर अगले दिन भी मैं कॉलेज नही गई। न जाने क्यों दिल नही था। शाम को पापा जल्दी ही घर आ गए थे। और जो लाए थे वो उतनी बड़ी खुशी थी मेरे लिए कि शब्दों में बता नही सकती।

एक प्यारी सी स्कूटी। तितली सी। सोन चिड़िया सी। नही, एक सफेद परी सी थी वो। मेरे सपनों की उड़ान। मेरी जान थी वो। सच कहूँ तो उस रात मुझे नींद नही आई थी। मैंने पापा को कितनी बार थैंक्यू बोला याद नही है।

स्कूटी कहाँ से आई ? पैसे कहाँ से आए ये भी नही सोच सकी ज्यादा ख़ुशी में। फिर दो दिन मेरा प्रशिक्षण चला। साईकिल चलानी तो आती थी। स्कूटी भी चलानी सीख गई।

पाँच दिन बाद कॉलेज पहुँची। अपने पापा की “औकात” के साथ। एक राजकुमारी की तरह। जैसे अभी स्वर्णजड़ित रथ से उतरी हो। सच पूछो तो मेरी जिंदगी में वो दिन ख़ुशी का सबसे बड़ा दिन था। मेरे पापा मुझे कितना चाहते हैं सबको पता चल गया।

मग़र कुछ दिनों बाद एक सहेली ने बताया कि वो पापा के साईकिल रिक्सा पर बैठी थी। तब मैंने कहा नही यार तुम किसी और के साईकिल रिक्शा पर बैठी हो। मेरे पापा का अपना टेम्पो है।

मग़र अंदर ही अंदर मेरा दिमाग झनझना उठा था। क्या पापा ने मेरी स्कूटी के लिए टेम्पो बेच दिया था। और छः महीने से ऊपर हो गए। मुझे पता भी नही लगने दिया।

शाम को पापा घर आए तो मैंने उन्हें गोर से देखा। आज इतने दिनों बाद फुर्सत से देखा तो जान पाई कि दुबले पतले हो गए है। वरना घ्यान से देखने का वक़्त ही नही मिलता था। रात को आते थे और सुबह अँधेरे ही चले जाते थे। टेम्पो भी दूर किसी दोस्त के घर खड़ा करके आते थे।

कैसे पता चलता बेच दिया है।
मैं दौड़ कर उनसे लिपट गई!:-“पापा आपने ऐसा क्यूँ किया?” बस इतना ही मुख से निकला। रोना जो आ गया था।

” तू मेरा ग़ुरूर है बिटिया, तेरी आँख में आँसू देखूँ तो मैं कैसा बाप? चिंता ना कर बेचा नही है। गिरवी रखा था। इसी महीने छुड़ा लूँगा।”

“आप दुनिया के बेस्ट पापा हो। बेस्ट से भी बेस्ट। इसे सिद्ध करना जरूरी कहाँ था? मैंने स्कूटी मांगी कब थी? क्यूँ किया आपने ऐसा? छः महीने से पैरों से सवारियां ढोई आपने। ओह पापा आपने कितनी तक़लीफ़ झेली मेरे लिए ? मैं पागल कुछ समझ ही नही पाई ।” और मैं दहाड़े मार कर रोने लगी फिर हम सब रोने लगे। मेरे दोनों छोटे भाई। मेरी मम्मी भी।

पता नही कब तक रोते रहे ।
वो स्कूटी नही थी मेरे लिए। मेरे पापा के खून से सींचा हुआ उड़नखटोला था मेरा। और उसे किसी कबाड़ी को बेच दिया। दुःख तो होगा ही।

अचानक मेरी तन्द्रा टूटी। एक जानी-पहचानी सी आवाज कानो में पड़ी। फट-फट-फट,, मेरा उड़नखटोला मेरे पति देव यानी तहसीलदार साहब चलाकर ला रहे थे। और चलाते हुए एकदम बुद्दू लग रहे थे।

मगर प्यारे से बुद्दू। मुझे बेइन्तहा चाहने वाले राजकुमार बुद्दू…

जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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