रामायण हमारे समाज की कहानी है। भाइयों की आपसी आदत, उनका बर्ताव और फिर उनमें स्नेह और सम्मान रामायण की कहानी है। बड़े भाई राम को अच्छा जाना जाता है, छोटे भाई उनको मानते हैं।
आजकल के समाज का द्वेष, ईष्र्या और स्वार्थ चिन्ताएं वाल्मीकि की कहानी में प्रेम, श्रृद्धा और मित्रता के भाव से उल्लेख करते होते हैं। इसमें सर्वोच्च कोटी के चरित्र हैं भरत, जो अयोध्या का सिंहासन स्वीकार नहीं करते और अपने बड़े भैया की खोज में चल बैठते हैं। इसमें वह अपनी माँ की खातिर नहीं करते। भाई का जो प्राप्य है, उसे मिलना चाहिये, यह उनकी शिक्षा है।
कैकयी से शादी करने के लिये राजा दशरथ ने कैकेयी के पिताजी से यह वादा किया था कि कैकेयी का औरस पुत्र अयोध्या का राजा बनेगा। कैकेयी का पुत्र हुआ ही नहीं और राजा दशरथ ने यज्ञ करवाया। यज्ञ के जरिये जो चार बच्चे पैदा हुए, उनमें रामजी पहले थे। वह भी अच्छे थे और राजा दशरथ के प्यारे थे। राजा ने उनको गादी समर्पण की योजना की। कैकेयी के पिताजी को शायद ख्याल था कि कैकेयी का यज्ञपुत्र भरत सिंहासन पर बैठे। शायद दासी मन्थरा इसी के लिये ही अयोध्या आई हुई थी। कैकेयी को मनाकर उसने रामजी को वनवास भेज दिया।
अपनी माँ के बनाये हुए कायदों से न जुड़ना भरत के चरित्र का महत्व है। वाल्मीकि इसको अपनी नाटकीय शैली से पेश करते हैं। रामजी को वन भेजकर कैकेयी बैठी हुई हैं, राजा दशरथ भी चल बसे हैं। भरत को सिंहासन के लिये और कोई विघ्न नहीं है।
लेकिन भरत अपनी माँ को कटु वचन कहते हैं, सिंहासन स्वीकार नहीं करते और रामजी की खोज में जंगल की ओर चल पड़ते हैं। सारी सेना, मंत्रियों और सारे के सारे अयोध्यावासी उसके साथ चलते हैं। गंगा पार करके वह ऋषि भारद्वाज से मिलते हैं और उनसे पता करके रामजी के पास चित्रकूट में पहुंचते हैं। सूर्यास्त हो गया था- थोड़ा अंधेरा था। गुरु वशिष्ठ, सारथी सुमन्त, भरत और शत्रुघ्न रामजी की कुटिया में पहुंचते हैं। कुटिया में रामजी यज्ञवेदी पर बैठकर संन्ध्या हवन कर रहे थे। भरत उनको पहचानते हैं।
रामजी वल्कल पहने हुए हैं, शिर पे जटा, मुख पर श्मश्रु- भरत सम्हल नहीं पाते, रामजी के चरणों में गिर पड़ते हैं। रामजी उसको पहचानते नहीं- भरत भी जटा और श्मश्रु से आभूषित हैं, वल्कल पहने हुए हैं। जब पहचानते हैं तो दोनों भाइयों में मिलकर बाहुबन्धन होता है। एक-दूसरे को छोड़ते नहीं। भाई से मिलना अमोल है। शत्रुघ्न और लक्ष्मण भी मिल जाते हैं। सीता प्रीतिपूर्वक कुटिया में इस मिलन दृश्य को आनंद से देखती रहती है। अद्भुत नाटक- अद्भुत वर्णन।
भरत के कुछ कहने के पहले रामजी अपने बड़े भाई का दायित्व दाखिल कर डालते हैं। राज्य चलाना ऐसे आसान नहीं है, दान क्या है, धर्म क्या है, छल कैसा है, समाज कैसा है, शासन क्या है, सारे का व्याख्यान चुन-चुन कर भाई को सुनाते हैं। यह समझो कि राजतंत्र के बारे में बताने के लिये वह तड़प रहे थे। इस वर्णन के बाद ही वह अपने पिता दशरथ के मृत्यु का संवाद सुनते हैं। राजा के लिये शासन आगे है, शोक पीछे। ऐसा हो कि राजा दशरथ की बढ़ती हुई उमर और आने वाली मौत के लिये रामजी तैयार थे। शोक तो किया लेकिन धीरज नहीं हटाया। लक्ष्मण और सीताजी के साथ मन्दाकिनी में पिताजी की प्रेतक्रिया समापन किया।
सुबह तक रामजी को पता नहीं चलता कि भरत उन्हें वापस बुलाने के लिये आये हैं। भरत अपने वाक्यों में रामजी को अपील करते हैं। “बन्ध टूट गया है- मैं रोक नहीं पाऊंगा- बड़े पेड़ को छोटा आदमी चढ़ नहीं सकता- राजा दशरथ के बिना राज्य चलाना असंभव है, आपको वापस आना ही होगा… कैकेयी को क्षमा कर दो, अयोध्या आपकी अपेक्षा कर रही है। आपके बिना अयोध्या चल नहीं सकती। कानून को मानना है, मैं छोटा हूं।”
किस खयाल में रामजी ने कैकेयी को विश्वास किया और बिना पूछे वन चल दिये- इसका उत्तर एक ही है- पिताजी को कष्ट न हो, उनकी परलोक में भलाई हो। और एक दूसरी भावना मंडराती है जो कि वैदिक चिन्तनधारा से निहित है। यह कि सभी कर्मों का कोई कारण होता है।
यह कारण मनुष्य के हाथ में नहीं रहता। इसको दैव बोला जाता है। रामजी यह भावना भरत पर डालते हैं। उसको समझाने की कोशिश करते हैं। “जीवन के चलन में मनुष्य अपने को आजाद नहीं कह सकता। समयरूपी काल सबको घुमाता है। पुत्र का काम पिता की आज्ञा पालन करने का है। सारा संसार डोर से बंधा हुआ है। हम उससे निकल नहीं सकते। कर्मों का कुछ कारण है।”
“पिताजी ने गलती की है, पिता के दोष सुधारना सच्चे पुत्र का काम है, आपके वनवास से राष्ट्र में किसी को खुशी नहीं है, मेरी माता को क्षमा कर दो। घर चलो, सारी अयोध्या आपका इंतजार कर रही है।” लेकिन रामजी अटल हैं।
“नरक से पिता को बचाना पुत्र का प्रधान कार्य है। हमें पिताजी को नरक से बचाना जरूरी है। बाकी सब पीछे। पिताजी ने तुमको सिंहासन ग्रहण करने का आदेश दिया है। तुम उसका पालन करो। पिताजी के वचन रखने से हम उन्हें नरक से बचा सकते हैं। तुम अयोध्या और राज्य का भार संभालो, भाई शत्रुघ्न तुम्हारा साथ दें। मैं दण्डक वन जाऊंगा, भाई लक्ष्मण मेरे साथ रहेगा। यह नियति का प्रस्ताव है। यह है पिता की सत्य रक्षा करने की तरीका।”
भरत धीरज नहीं छोड़ते, जमीन पर कुश बिछाकर सो जाते हैं। “मैं यहीं सोऊंगा, जब तक आप मन नहीं बदलाते में अनादर से रहूंगा।” रामजी विनय से पूछते हैं। “मैंने ऐसी कौन-सी गलती की है जो तू नाराज है।” भरत नाराज है ही- वह नहीं सुनता। “ठीक है, अगर अनादर नहीं चाहिए, तो मैं आपकी जगह चौदह साल वन में रहूंगा। इससे पिताजी का आज्ञा का तात्पर्य शायद पूरा होगा।” रामजी फिर समझाते हैं “आज्ञा पालन में कोई बदलाव नहीं होता है, सबको अपना-अपना काम करना होगा, कोई विलय हो यह आज्ञा का उल्लंघन होगा।”
अपने भाई का निराडम्बर भाव और सस्नेह सम्मान रामजी के दिल को भर लेता है- “ऐसे भाई संसार में मुश्किल से मिलते हैं। तुम्हारे स्वभाव से ही तुम अयोध्या का राज्यभार लेने को तैयार हो, जो कुछ करोगे, तुम्हें सफलता मिलेगी। तुमको अयोध्या पालना है। मित्रों और मंत्रियों से बातें करके देश का काम तुम्हें सम्हालना है। चाहे हिमालय से हिम सूख जाये, या चाँद काला पड़ जाये या समुन्दर तट को उछाल दें, मैं कभी अपने पिताजी के वचन का उल्लंघन नहीं करूंगा।”
भरत लाचार हैं, गुरु वशिष्ठ की सलाह पर वह रामजी को लकड़ी की पादुकाएँ उतार कर देने की मांग रखता है।
रामजी पादुके के ऊपर पैर रखकर उन्हें भरत को वापिस कर देते हैं, भरत अपनी शपथ बोलते हैं – भैया, दोनों पादुकाओं को सिंहासन पर बैठाकर मैं देशभार सम्हालूंगा, चौदह साल तक मैं सिर्फ फल और मूल ही भक्षण करूंगा। शहर के बाहर ठहरकर मैं आपका इंतजार करूंगा। अगर आप चौदह साल के बाद वापिस नहीं आये, तो आग में कूद पड़ूंगा।” अभी रामजी का कोई उत्तर नहीं है। सिर्फ बोलते हैं- “तथास्तु”।।
जय श्रीराम