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पिता का अधिकार

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“पिता का अधिकार”*

पिता का यह व्यवहार देखकर मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने कहा, “भाई साहब, यह सही बात नहीं है। यहाँ भरी सड़क पर जवान बेटे को थप्पड़ मारना मूर्खता है।” मेरी बात सुनकर ठेलेवाले की आँखों में आँसू आ गए। वह भरे गले से बोला, “क्या करूँ साहब, जब यह बार-बार गलती करता है तब मुझसे रहा नहीं जाता। एम.ए. कर रहा है फिर भी चूक करता है। शायद अब मैं भी ज़रा चिड़चिड़ा हो गया हूँ।”

मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ चाट के ठेले पर दहीबड़े खा रहा था। अचानक ठेले वाले ने अपने बीस-बाईस साल के बेटे को खींचकर थप्पड़ मारा और झुँझलाते हुए बोला, “तुझे कितनी बार समझाया है कि कांजी के पानी वाला कुरछा दहीबड़ों में मत डाला कर। इसका अलग कुरछा रखा है न।”

पिता के आँसू देख लड़का मेरी ओर मुड़ा और गुस्से में बोला, “गलत मेरे पापा नहीं हैं साहब, गलत आप हैं जो एक बेटे के सामने बाप को गलत सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं। यह मेरे पिता हैं। इनका मुझ पर पूरा हक है। ये चाहे मुझे थप्पड़ मारें या डाँटें, मुझे कोई शिकायत नहीं। जब मुझे शिकायत नहीं है तो आप क्यों टोक रहे हैं। और सुन लीजिए, बाप कभी गलत नहीं होता, हमेशा औलाद ही गलत होती है।” इतना कहकर उसने अपने पिता के आँसू पोंछे और बोला, “पापा, खुद को दुखी मत कीजिए। जब आप मुझे थप्पड़ मारते हैं तब मुझे अच्छा लगता है। बुरा तो तब लगता है जब आप कई दिनों तक मुझ पर हाथ नहीं उठाते। तब मुझे लगता है कि शायद अब आपको मेरी फिक्र ही नहीं रही।”

पत्नी और बच्चे मुझे अजीब नज़रों से देख रहे थे। जैसे मेरी पत्नी आँखों ही आँखों से कह रही हो, “अब समझ आया, दूसरों के पचड़े में पड़ने का नतीजा।” मैंने तुरंत पैसे चुकाए और परिवार को लेकर वहाँ से चल पड़ा। थोड़ी ही दूर जाकर बच्चे फिर पानीपुरी खाने लग गए, लेकिन मेरा मन कहीं और उलझा हुआ था। उस लड़के के शब्द मेरे भीतर नगाड़ों की तरह गूँज रहे थे और बरसों से बंद पड़े एक दरवाज़े को खोल रहे थे।

मुझे अपने पापा याद आ रहे थे। दस साल हो गए थे उनसे मिले हुए। वजह बस इतनी-सी थी कि एक दिन पापा ने मेरी पत्नी के सामने मुझे डाँट दिया था। मैं नाराज़ होकर बोला, “अब मैं बड़ा हो गया हूँ, अब आपकी यह डाँट अच्छी नहीं लगती।” यह सुनकर पापा गुस्से में अपनी जूती निकाल लाए और चिल्लाते हुए बोले, “मुझसे बड़ा हो गया है क्या? बता दूँ तुझे अभी।” वह जूती मेरे कान के पास से निकल गई। मैं बच गया था लेकिन भीतर आग भर गई थी। उसी रात मैंने ठान लिया कि अब इस घर में नहीं रहूँगा।

सुबह चार बजे पत्नी को लेकर मैं चुपके से घर छोड़ आया। माँ, पापा, भाई और भाभी सब पीछे रह गए। सब पापा से डरते थे, मगर मैं बोल जाता था। मुझे लगता था कि पापा गलत हैं। पर आज उस लड़के के शब्द गूँज रहे थे कि “बाप कभी गलत नहीं होता, हमेशा औलाद ही गलत होती है।” और मेरे भीतर सवाल उठ रहा था कि क्या सचमुच गलती मेरी ही थी?

उस रात नींद नहीं आई। पत्नी ने देखा तो बोली, “लगता है ठेले वाले लड़के की बात दिल को लग गई है।” मैं उदास होकर बोला, “हाँ, सच है। पापा कभी गलत नहीं होते, उनकी हर बात में हमारा भला छुपा होता है।” पत्नी ने प्यार से समझाया, “फिर चिंता क्यों? इस बार दिवाली गाँव चलते हैं। ससुर जी से मिलना होगा। देखना, वे आपको तुरंत माफ कर देंगे। अगर गुस्से में फिर एक आध जूता भी मार दें तो सह लेना, जैसे बचपन में सहा करते थे।”

सुबह जब हम गाँव पहुँचे तो माँ, भाई, भाभी और भतीजों के चेहरे खिल उठे। दस साल बाद मैंने घर की देहरी लाँघी थी। बैठक में पापा कम्बल ओढ़े सोए हुए थे। मैंने चुपचाप उनके चरण छुए। वे जागे, चश्मा लगाया और मुझे देखा। चेहरे पर वर्षों की नाराजगी थी। फिर बिना कुछ कहे कम्बल से चेहरा ढक लिया। मेरे पाँव वहीं जम गए। बोलने की हिम्मत नहीं थी।

मैंने बेटे बिट्टू को पास बुलाया। वह दादाजी से बहुत स्नेह करता था। उसने जाकर पापा का कम्बल खींचा और बोला, “दादू, देखो पापा आपसे बात करना चाहते हैं।” पापा ने पलटकर कहा, “अपने बाप से कह दो यहाँ से चला जाए। मुझे इससे कोई बात नहीं करनी।” मेरी आँखों में आँसू आ गए। मैं पापा के चरण पकड़कर चुपचाप रो पड़ा। बिट्टू बोला, “दादू, पापा रो रहे हैं।” मैं सिसकते हुए बोला, “माफ कर दो पापा। बहुत देर बाद समझ आया कि आप सही थे, गलती मेरी थी।”

पापा शायद इन्हीं शब्दों का इंतज़ार कर रहे थे। झटके से बैठकर बोले, “आ बेटा, बहुत दिन हो गए तुझे सीने से लगाए हुए। मन करता था कि सारी नाराजगी छोड़कर तेरे पास आ जाऊँ, मगर तू भी तो पत्थर बना हुआ था।” और फिर हम गले मिले। बरसों का बिछोह मिट गया। लगा जैसे जड़ों से कटे पेड़ को फिर से अपनी मिट्टी मिल गई हो, जैसे बरगद की छाँव में लौट आया हूँ।

उस साल की दिवाली सबसे यादगार थी। दस साल का वनवास खत्म हो गया था। पापा और माँ को मैं अपने साथ शहर ले आया। कुछ ही महीनों में पापा का स्वास्थ्य सँभल गया। चेहरे पर पहले जैसी ताजगी लौट आई।

सच है, माता-पिता ईश्वर स्वरूप होते हैं। उनके बिना जीवन अधूरा है।

!!! जय श्री राधे कृष्ण !!!

*जय श्रीराम*

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

1 Comment

  • संयुक्त परिवार में जीने का आनंद ही कुछ ओर है, मीठी खटपट चलती रहती है

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