lalittripathi@rediffmail.com
Stories

ढपोलशंख

276Views

ढपोलशंख

एक गृहस्थ ने साधु-बाबा की बहुत सेवा की थी । साधुबाबा के पास पद्म नामका एक छोटा सा शंख था , जब गृहस्थ साधु के आश्रम से घर लौटने लगा तो साधु ने उसकी सेवा से प्रसन्न हो कर वह शंख उसे दे दिया ,कहा कि –इसकी पूजा करना , यह तुम्हारी जरूरत के मुताबिक तुम्हें धन दे दिया करेगा !

जब वह गृहस्थ अपने घर लौट रहा था ,तब रास्ते में एक रात एक आदमी के घर पर रुका । जब वह सोने को हुआ तो उसके मन में कुतूहल हुआ कि देखूं कि यह शंख कुछ देता भी है या साधु की बात यों ही है ?….उसने शंख की पूजा की और एक स्वर्णमुद्रा मांगी ! शंख में से सचमुच एक स्वर्णमुद्रा निकल पड़ी , वह खुश हो गया !

यह घटना उस आदमी ने देख ली ,जिसके घर पर वह रुका हुआ था , उसके मन में लालच आया और उसने उसकी झोली में वैसा ही छोटा शंख रख दिया और वह पद्म नामका शंख चुरा लिया !

जब गृहस्थ अपने घर आया और शंख की पूजा करके एक स्वर्णमुद्रा मांगी तो कुछ भी नहीं निकला ! वह निराश हो कर पुन: साधु के पास गया – महात्माजी , इस शंख ने एक बार तो स्वर्णमुद्रा दे दी थी , लेकिन अब कुछ भी नहीं देता !

साधुबाबा ने पूछा कि यहां से लौटते समय क्या तुम किसी के घर पर रुके थे ?….गृहस्थ ने कहा हां ,एक आदमी के यहां एक रात गुजारी थी !

साधुबाबा समझ गये !  अबकी बार उन्होंने एक बड़ा शंख दिया और कहा कि लौटते समय तुम फिर से उसी के यहां रुकना और शंख से स्वर्णमुद्रा मांगना !

गृहस्थ ने वैसा ही किया और रात को शंख की पूजा करके स्वर्णमुद्रा मांगी । शंख में से जोर की आवाज निकली -वत्स ! तूने एक ही स्वर्णमुद्रा क्यों मांगी ? मैं दूसरे शंखों की तरह कृपण थोड़े ही हूं , कल मैं तुझे दस स्वर्णमुद्रा दूंगा ।

घर वाला वह आदमी यह देख रहा था , उसने सोचा कि कल दस स्वर्णमुद्रा मिलेंगी !  उसने पद्म नामका छोटा वाला शंख तो उसकी झोली में रख दिया और बड़ा वाला शंख चुरा लिया !

सबेरे गृहस्थ तो अपने घर चला गया … अब उस आदमी ने बड़े शंख की पूजा करके कल कही गयी बात के अनुसार दस स्वर्णमुद्रा मांगी -शंख में से जोर की आवाज निकली – वत्स ! तूने केवल दस स्वर्णमुद्रा ही क्यों मांगी ? मैं दूसरे शंखों की तरह कृपण थोड़े ही हूं , कल मैं तुझे एक सौ स्वर्णमुद्रा दूंगा ।

आदमी को बहुत खुशी हुई कि कल सौ स्वर्णमुद्रा मिलेंगी ! दूसरे दिन आदमी ने शंख की पूजा करके एक सौ स्वर्णमुद्रा मांगी तो शंख में से जोर की आवाज निकली -वत्स ! तूने केवल एक सौ स्वर्णमुद्रा ही क्यों मांगी ? मैं दूसरे शंखों की तरह कृपण थोड़े ही हूं , कल मैं तुझे एक हजार स्वर्णमुद्रा दूंगा ।

इसी प्रकार शंख ने तीसरे दिन दस हजार स्वर्णमुद्रा देने को कह दिया और चौथे दिन एक लाख स्वर्णमुद्रा देने को कहा । आदमी बहुत खुश हो गया !

पांचवें दिन उस आदमी ने शंख की पूजा करके प्रार्थना की कि – हे प्रभो ! आपने मुझे कल एक लाख स्वर्णमुद्रा देने को कहा था , आज कृपा करिये ।

शंख में से जोर की आवाज निकली – वत्स ! तूने केवल एक लाख स्वर्णमुद्रा ही क्यों मांगी ? मैं दूसरे शंखों की तरह कृपण थोड़े ही हूं , कल मैं तुझे दस लाख स्वर्णमुद्रा दूंगा ।

आदमी ने कहा – प्रभो ! आप कह तो देते हैं किन्तु देने का नंबर कब आयेगा ?….शंख में से जोर की आवाज निकली वत्स ! तू जानता नहीं ,अहं ढपोलशंखोSस्मि ?

मेरा काम तो बस बोलना ही बोलना है , बोलना ही बोलना और बस ! ढपोलशंख तो बोल करके ही खुश करता है , देने से मेरा क्या काम ?

आदमी समझ गया ! आदमी समझ तो गया किन्तु उसके मन में पश्चात्ताप रहा कि समझने में देर बहुत हो गयी !

कहानी अच्छी लगे तो Like और Comment जरुर करें। यदि पोस्ट पसन्द आये तो Follow & Share अवश्य करें ।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

1 Comment

Leave a Reply to SUBHASH CHAND GARG Cancel reply