इच्छाशक्ति या प्रभुकृपा पर विश्वास
प्रभु की कृपा पर विश्वास करने के उपरान्त यदि हम इच्छाशक्ति का प्रयोग करें तब तो फिर कहना ही क्या है । फिर तो स्वयं विशुध्द होकर विशुध्द लक्ष्य की ओर जाने वाली हो जायगी और प्रभु का बल मिल जाने के कारण वह सर्वथा अव्यक्त और अचूक बन जायगी । भक्तिशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक पद मे अपने ऐसे ही प्रयोग का वर्णन किया है । वे कहते हैं – ‘रे संसार ! मैं तुझे अब जान गया । तेरे अन्दर अब शक्ति नही कि तू मुझे बाँध ले । मुझ मे अब प्रभु का बल आ गया है । प्रभु के बल से मैं अत्यन्त बलवान हो गया हूँ । अब तू मुझे नही बाँध सकता । तू प्रत्यक्ष कपट का घर है, तेरे कपट मे मैं अब नही भूल सकता । तू अपनी सेना समेट ले । हट जा यहाँ से । चला जा; मेरे हृदय मे तू नही रह सकता । वहाँ जाकर रह, जिस हृदय मे प्रभु का निवास न हो । मेरा हृदय तो प्रभु का निवास बन गया है । यहाँ अब तेरे लिये स्थान नही है; तू टिक नही सकता ।
मैं तोहिं अब जान्यो संसार । बाँधि न सकहिं मोहि हरि के बल, प्रगट कपट-आगार ॥
गोस्वामीजी यहाँ इच्छाशक्ति का ही प्रयोग कर रहे हैं, पर उनकी इच्छाशक्ति के पीछे अपनी ‘अहंता’ के द्वार से झरने वाला आसुरी बल नही है, अपितु प्रभु का अनन्त असीम बल – प्रभु की कृपा का पुनीत बल है । ऐसा समन्वय तो हमारे लिये परम वांछनीय है, बिना हिचक हमें यह कर ही लेना चाहिये । उपर उठने कें लिये, पतन से बचने के लिये हम यदि प्रभु कृपा के बल से बलवान बनकर इस प्रकार इच्छाशक्ति का प्रयोग करे तो हमारा जीवन भी देखते-देखते अन्धकार से निकलकर प्रभु के आलोक मे आ जाय ।
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जय श्रीराम
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सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा
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