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अपने तो अपने होते है

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अपने तो अपने होते है

अशोक हॉस्पिटल के एक वार्ड मे माथा पकड़े बैठा था। उसकी गोद मे एक साल की बेटी सो रही थी। तीन साल का बेटा उसकी बांह पकड़े खड़ा था। पास मे ही उसकी पत्नी बैड पर लेटी हुई थी।

पत्नी को बीमार हुए एक महिना हो गया था। मगर अभी भी वह गम्भीर रूप से बीमार थी। पत्नी बीपी लो होने के कारण बेहोश हो गई थी। हॉस्पिटल लाने के दो दिन बाद उसे होश आया था। मगर इतनी देर तक बीपी लो रहने के कारण हार्ट, फेफड़े, किडनी और अन्य अंगों का बुरा हाल हो गया था। इलाज चल रहा था मगर सुधार बहुत धीरे हो रहा था। वह एक महीने से बीमार बीवी और दो छोटे बच्चों को अकेला सम्भाल रहा था

वह पिछले चार दिनों से नहाया भी नही था। उसकी हालत इतनी खराब थी कि वह कहीं अकेला बैठकर रोना चाहता था। शुरू मे कुछ यार दोस्त और मोहल्ले के कुछ लोग मिलने आये थे। उसके बाद तो लोगों ने फोन उठाना भी बन्द कर दिया था। कि वह कहीं पैसे ना मांग ले।शहर मे वह ज्यादा लोगों को जानता भी नही था।

क्योंकि तीन साल पहले वह माँ बाप, और भाई भाभियों से लड़कर इस शहर मे आया था! तभी से बीवी बच्चों के साथ किराये के मकान मे रह रहा था।

घर मे कोई बीमार पड़ता है तब सगे सम्बन्धी और रिश्तेदार ही काम आते है। अशोक तो ससुराल वालों से भी लड़कर बैठा था। दो रुपये कमाने क्या शुरू किये घमण्ड मे अपनो से ही दूरी बना बैठा था।

अचानक उसने हिम्मत करके अपनी माँ को फोन मिलाया। पूरी घण्टी जाने के बाद भी माँ ने फोन नही उठाया। फिर दूसरी बार फिर से कॉल किया तो माँ ने फोन काट दिया

उसे याद आया तीन साल पहले जब माँ से लड़कर आया था तब उसने कहा था। ” तुम सब मेरे लिए मर चुके हो मै तुम लोगों का मुँह भी नही देखूंगा।” मां के फोन काटने पर वह निराश हो गया। उसकी आँखों मे आँसू निकल आए। पास ही बैड पर सोई पत्नी टुकुर टुकुर देख रही थी। पति को रोते देखा तो उसकी आँखों मे भी आँसू निकल आए

अशोक ने सोचा पापा को फोन मगर पापा और बड़े भाईयों से बात करने की उसकी हिम्मत नही थी।

एक मात्र माँ ही वो कड़ी थी जिससे वह बात कर सकता था। मगर माँ ने फोन काट दिया था। उसने एक बार और आखरी कोशिश करने के लिए माँ को फोन मिला दिया। इस बार माँ ने फोन उठा लिया। माँ बोली” क्या है? हम लोग तो तुम्हारे लिए मर गए है। अब हमारे जीवित श्राद्ध करने के लिए फोन कर रहा है क्या?”….

माँ की आवाज सुनते ही उसका सब्र जवाब दे गया। वह रुँधे गले और बिगड़ते चेहरे के साथ इतना ही बोल पाया “माँ ” फिर फफक फफक कर रोने लगा। वो माँ थी। औलाद का रोना कैसे सहन कर सकती थी।

तुरंत माँ का गुस्सा शांत हो गया सारे मनमुटाव एक पल मे भूल गई। जिस तरह एक हिरनी अपने बच्चे के लिए तड़प उठती है वैसे ही वह अधीर होकर बोली ” क्या हुआ रे.. रो क्यों रहा है? जल्दी बता बेटा। मेरा मन घबरा रहा है?”

माँ के वात्सल्य भरे शब्दों को सुन कर वह जोर जोर से रोने लगा। वार्ड मे दूसरे मरीज और उनके परिजन उसकी तरफ देखने लगे
माँ अनर्थ के डर से बार बार पूछ रही थी

“क्या हुआ बेटा जल्दी बोल ना ? “वह रुलाई रोकते हुए रँधे गले से बोला” माँ तेरी बहु एक महीने से हॉस्पिटल में भर्ती है। उसे और बच्चों को संभालते संभालते थक गया हूँ माँ। “

माँ बोली ” तू अकेला कहाँ है रे हम है ना। अभी तेरा बाप जिंदा है माँ जिंदा है। तीन बड़े भाई है भाभियाँ है। बताने मे तुमने इतनी देर क्यों कर दी बेटा

तू अब फिकर मत करना। दो घण्टे मे सबको लेकर आ रही हूँ। तू हिम्मत रखना।”

आज बरसों बाद उसे माँ के वचन अमृत तुल्य लगे। शरीर मे जान आ गई। ऐसे लगा जैसे अब सब कुछ ठीक हो जाएगा।

वह खड़ा होता हुआ पत्नी से बोला “अब तू बिल्कुल ठीक हो जाएगी। माँ आ रही है।”

पत्नी रोते हुए सारी बातें सुन रही थी। बोली” परिवार आ रहा है ये सुनकर मेरी भी हिम्मत बन्ध गई है जी। “

कुछ देर बाद ही उसका पुरा परिवार वहाँ पहुँच गया। बाप ने जब उसके कन्धे पर हाथ रखा तो वह पिता के सीने से चिपकते हुए रो पडा रोते रोते बोला माफ कर दो पापा।” पिता ने उसे भुजाओं मे कसते हुए कहा” रो मत मै हूँ ना।”

भाईयों से गले मिला तो वे बोले “ज्यादा बड़ा हो गया क्या?…इतनी बड़ी बात हो गई और तू अब बता रहा है? “

तीनो भाभियाँ भी साथ आई थी। साथ मे घर से खाना बनाकर भी लाई थी। तीन साल बाद उसने अपने घर का खाना खाया।फिर माँ ने उसे नहाने के लिए घर भेज दिया। परिवार के आने से वह हल्का फुल्का महसूस कर रहा था

घर पहुँचते ही नहा कर बेफिक्र होकर सो गया। एक महीने बाद उसे चैन की नींद आई। उसकी पत्नी जो एक महीने से बेसुध थी। परिवार के आते ही चैतन्य हो गई। अपनो का साथ दवाई का काम कर गया। वह सात दिन मे ही ठीक हो गई। अशोक और उसकी पत्नी को समझ मे आ गया कि परिवार के बिना कुछ भी नही है इसलिए वे अपने परिवार के साथ ही गाँव लौट गए

कहानी का मोरल:आजकल यारी दोस्ती तो सिर्फ मतलब की रह गई है। ऐसे मौके पर सही मायनों मे अपना परिवार ही काम आता है। इसलिए बेशक अलग रह लीजिए मगर अपनो से जुड़े रहिए। गुरुर मे उन्हे खोने की गलती मत करिये। क्योंकि अपने तो अपने होते है। उनके बिना इंसान भीड़ मे भी अकेला है।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

1 Comment

  • दुःख में लंबे समय के लिए सिर्फ परिवार के लोग ही काम आते हैं

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