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विचित्र आतिथ्य

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विचित्र आतिथ्य

महर्षि दुर्वासा अपने क्रोध के लिए तीनों लोक में विख्यात हैं। एक बार वे चंवर लिए, जटा बढ़ाये, बिल्वदण्ड लिये तीनों लोकों में घूम-घूमकर सभाओं में चौराहों पर चलते फिरते बोलते जा रहे थे। मैं दुर्वासा हूं, दुर्वासा, निवास के लिए स्थान खोजता हुआ चारों ओर घूम रहा हूं। जो कोई अपने घर में ठहराना चाहता हो, वह अपनी इच्छा व्यक्त करे। पर जरा सा भी क्रोध, गलती या अपराध करने पर मुझे क्रोध आ जायेगा। इसलिए जो मुझे आश्रय देना चाहे, उसे सर्वदा इस बात का ध्यान रखना होगा और बड़ा सावधान रहना पड़ेगा।

महर्षि चिल्लाते-चिल्लाते देवलोक, नागलोक, मनुष्यलोक- हर जगह घूम आये, पर किसी को भी उनके प्रस्ताव रूप विपत्ति को स्वीकार करने का साहस न हुआ। घूमते-घामते वे द्वारका पहुँचे। भगवान् श्रीकृष्ण के कानों में उनकी आवाज पहुँची। उन्होंने उनको बुलाकर अपने घर में ठहरा लिया, किंतु उन महात्मा का रहने का ढंग बड़ा निराला था।

किसी दिन तो वे हजारों मनुष्यों की भोजन-सामग्री अकेले खा जाते थे और फिर किसी दिन बहुत थोड़ा खाते। किसी दिन घर से बाहर निकल जाते और फिर उस दिन लौटते ही नहीं। कभी तो वे ठहाका मारकर अनायास ही हँसने लगते और कभी अकारण ही जोरों से रोने लगते थे।

एक दिन वे अपनी कोठरी में घुस गये और शय्या, बिछौना आदि को आग में जलाकर भागते हुए श्रीकृष्ण के पास आये और बोले- ‘वासुदेव …..मैं इस समय खीर खाना चाहता हूँ, मुझे तुरन्त खीर खिलाओ।भगवान् वासुदेव भी सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान थे। उन्होंने उनका अभिप्राय पहले से ही जान लिया था। इसलिए उनकी अभीष्ट खाद्य-सामग्रियाँ पहले से ही तैयार कर रखी थीं।

बस, उन्होंने भी तुरन्त गरमागरम खीर लाकर उनके सामने रख दी। खीर खाकर उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- वासुदेव! यह बची हुई जूठी खीर अपने शरीर भर में चुपड़ लो। श्रीकृष्ण ने झट वैसा ही कर लिया। मस्तक में और सब अंगों में खीर लगा ली। श्री रुक्मिणीजी वहीं खड़ी-खड़ी मुस्करा रही थीं। दुर्वासा ने यह देख लिया। झट वही खीर उनके भी सारे अंगों में पोत दी और एक रथ में उनको जोतकर उस पर सवार हो गये। फिर तो जिस तरह सारथि घोड़ों को चाबुक मारता है उसी तरह महर्षि कोड़े फटकारते हुए रथ चलाने लगे।

श्रीकृष्ण यह सब चुपचाप देख रहे थे। यादवों को यह देखकर बड़ा गुस्सा आया। परम दुर्धर्ष महर्षि रथ पर चढ़े राजमार्ग से निकले। रुक्मिणीजी बार-बार गिर जाती थीं। पर महर्षि ने इस बात की जरा भी परवाह नहीं की। अन्त में जब रथ खींचने में असमर्थ होकर वे गिर पड़ी, तब महर्षि बिगड़कर रथ से उतर पड़े और उनको बेढंगे रास्ते से दक्षिण की ओर ले चले।

भगवान् श्रीकृष्ण भी सारे शरीर में खीर पोते उनके साथ दौड़ते चले जा रहे थे। उन्होंने महर्षि दुर्वासा से कहा- ‘भगवन ! मुझ पर प्रसन्न हो जाइये।’

तब दुर्वासा प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे और बोले- ‘वासुदेव ! तुमने क्रोध को जीत लिया है। तुम्हारा कोई अपराध मुझे नहीं दीख पड़ा। अब मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ और तुमको वर देता हूँ कि तुम सारे संसार में सबके प्रिय होओगे। तुम्हारी पवित्र कीर्ति सब लोकों में फैलेगी।

तुम्हारी जितनी वस्तुएँ मैंने जलायीं या नष्ट कर दी हैं, वे सब तुम्हें वैसी ही या उससे भी श्रेष्ठ अवस्था में मिलेंगी। इस जूठी खीर को सारे शरीर में लगा लेने से तुमको मृत्यु का भय नहीं रहेगा। तुम जब तक जीवित रहना चाहोगे, जी सकोगे। पर भाई ! तुमने अपने तलवों में खीर क्यों नहीं लगायी ? यह तुम्हारा काम मुझे पसन्द नहीं आया। बस, केवल ये तुम्हारे तलवे ही निर्भय न बन सके।

इतना कहना था कि श्रीकृष्ण ने अपने शरीर की ओर देखा तो वह बिल्कुल स्वच्छ और निर्मल था। अब महर्षि रुक्मिणी जी की ओर देखकर कहने लगे- ‘कल्याणी!

तुम्हारे शरीर में बुढ़ापा, रोग या अकान्ति का स्पर्श नहीं होगा। तुम्हारे शरीर से सर्वदा सुगन्ध निकलेगी और तुम सभी स्त्रियों मे श्रेष्ठ, यश और कीर्ति प्राप्त करोगी। अन्त में तुम्हें श्रीकृष्ण का सालोक्य प्राप्त होगा।

इतना कहकर महर्षि अन्तर्धान हो गये। रुक्मिणी को साथ लेकर श्रीकृष्ण चुपचाप घर आये।

 घर आकर उन्होंने देखा कि महर्षि ने जिन- जिन वस्तुओं को जलाकर नष्ट कर डाला था, वे सब पहले की तरह अपनी- अपनी जगह पर रखी थीं।

महर्षि का अद्भुत कार्य देखकर सभी आश्चर्य में पड़ गये।

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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