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 गुरु – शिष्य

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गुरु – शिष्य

बात कुछ इस तरह है, कि जब श्री रामकृष्ण परमहंस जी को कैंसर हुआ था, तब बीमारी के कारण वे खाना नहीं खा पाते थे, और स्वामी विवेकानंद जी अपने गुरु की इस हालात से बहुत ही चिंतित थे। एक दिन परमहंस जी ने पूछा- नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद जी)! क्या तुझे वो दिन याद हैं, जब तू अपने घर से मेरे पास मंदिर में आता था, और तूने दो-दो दिनों से कुछ नहीं खाया होता था, परंतु तू अपनी मां से झूठ कह देता था कि तूने अपने मित्र के घर खाना खा लिया है, ताकि तेरी गरीब मां थोड़े-बहुत भोजन को तेरे छोटे भाई को परोस दे ….है ना?

स्वामी विवेकानंद जी ने रोते-रोते हां में सर हिला दिया।

परमहंस जी आगे बोले- और जब तू यहां मेरे पास मंदिर आता था, तो अपने चेहरे पर खुशी का मुखौटा पहन लेता था। लेकिन मैं भी तो कम नहीं था, झट जान जाता था कि तेरे पेट में चूहों का पूरा कबीला धमा-चौकड़ी मचा रहा है और तेरा शरीर भूख से चूर हो रहा है, और फिर तुझे अपने हाथों से लड्डू, पेड़े, मक्खन और मिश्री खिलाता था। है ना?….

स्वामी विवेकानंद जी ने सुबकते हुए हां में गर्दन हिलाई।

अब रामकृष्ण परमहंस जी फिर से मुस्कुराए और पूछा- कैसे जान लेता था मैं यह बात? कभी सोचा है तूने?…

स्वामी विवेकानंद जी सिर उठाकर परमहंस जी को‌ देखने लगे, और परमहंस जी ने फिर पूछा- बता न, मैं कैसे तेरी आंतरिक स्थिति को जान लेता था?….

स्वामी विवेकानंद जी- क्योंकि आप अंतर्यामी हैं, ठाकुर।

परमहंस जी- अंतर्यामी, अंतर्यामी किसे कहते हैं?….स्वामी विवेकानंद जी- जो सबके अंदर की जान ले।

परमहंस जी- कोई अंदर की भावना कब जान सकता है?….स्वामी विवेकानंद जी- जब वो स्वयं अंदर में ही विराजमान हो।

परमहंस जी- यानि मैं तेरे अंदर भी बैठा हूं, है ना?….स्वामी विवेकानंद जी- जी बिल्कुल! आप मेरे हृदय में समाए हुए हैं।

परमहंस जी- तेरे भीतर में समाकर मैं हर बात जान लेता हूं, हर दुख-दर्द पहचान लेता हूं, तेरी भूख का अहसास कर लेता हूं, तो क्या तेरी भूख मुझ तक नहीं पहुंचती होगी?…

स्वामी विवेकानंद जी- मेरी भूख आप तक?…

रामकृष्ण परमहंस जी- हां तेरी भूख! जब तू भोजन खाता है और तुझे तृप्ति होती है, क्या वो मुझे तृप्त नहीं करती होगी? अरे पगले! गुरु अंतर्यामी है, अंतर-जगत का स्वामी है। वो अपने शिष्य के भीतर बैठा सब कुछ भोगता है। एक नहीं, हजारों मुखों से खाता हूं। तेरे, लाटू के, काली के, गिरीश के, सबके। याद रखना, गुरु कोई बाहर स्थित एक देह भर नहीं है। वो तुम्हारे रोम-रोम का वासी है। तुम्हें पूरी तरह आत्मसात कर चुका है। अलगाव कहीं है ही नहीं। अगर कल को मेरी यह देह नहीं रही, मैं तब भी जिऊंगा, तेरे जरिए जिऊंगा। मैं तुझमें रहूंगा और तू मुझमें।

ऐसा होता है गुरु-शिष्य का रिश्ता

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जय श्रीराम

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Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
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