वाल्मीकि रामायण -भाग 34
क्रोध से भरा हुआ बाली किष्किन्धापुरी से बाहर निकला और अपने शत्रु को देखने के लिए उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। तभी उसे युद्ध के लिए तैयार खड़ा सुग्रीव दिखाई दिया। उसे देखते ही बाली का क्रोध और भी बढ़ गया और उसकी आँखें लाल हो गईं। अगले ही क्षण दोनों भाई एक-दूसरे पर मुक्कों से प्रहार करने के लिए आगे बढ़े। बाली बोला, “सुग्रीव! मेरी इस कसकर बँधी हुई मुट्ठी को ध्यान से देख ले। मेरी सारी उंगलियाँ एक-दूसरे से सटी हुई हैं। एक ही मुक्का मारकर मैं तेरे प्राण ले लूँगा।”
तब क्रोधित सुग्रीव ने भी कहा, “मेरा यह मुक्का भी तेरे प्राण लेने के लिए तैयार है।”…..उतने में ही बाली ने बड़ी तेजी से सुग्रीव पर प्रहार कर दिया। उस चोट से घायल होकर सुग्रीव रक्त की उल्टी करने लगा। फिर सुग्रीव ने भी साल के वृक्ष को उखाड़कर बाली पर प्रहार करके उसे घायल कर दिया।
इस प्रकार दोनों भाई एक-दूसरे के प्राण लेने की इच्छा से वार करते गए। लेकिन शीघ्र ही सुग्रीव की शक्ति क्षीण होने लगी और बाली का पलड़ा भारी होता गया। बाली ने सुग्रीव का घमण्ड चूर कर दिया।
उसी समय सुग्रीव ने श्रीराम को अपनी अवस्था के बारे में संकेत किया। तब श्रीराम ने अपने धनुष पर बाण रखकर जोर से खींचा और बाली को लक्ष्य बनाकर बाण छोड़ दिया। वह बाण सीधा जाकर बाली की छाती में लगा और वह पराक्रमी वानर तत्काल भूमि पर गिर पड़ा। उसके शरीर से रक्त की धारा बहने लगी और वह धीरे-धीरे आर्तनाद करने लगा।
उस अवस्था में भी उसका शरीर तेजस्वी दिखाई दे रहा था। उसने गले में इन्द्र का दिया हुआ सोने का रत्नजड़ित हार पहना हुआ था। उसका सीना चौड़ा, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, मुख दीप्तिमान और आँखें कपिलवर्ण (ताँबे जैसे रंग की या भूरी?) थीं।
उस महापराक्रमी वीर का विशेष सम्मान करते हुए श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई उसके पास गए। उन्हें देखकर उसने विनयपूर्वक किन्तु कठोर वाणी में कहा, “श्रीराम! आप तो राजा दशरथ के सुविख्यात पुत्र हैं। मैं आपसे युद्ध करने नहीं आया था। मैं तो किसी और के साथ युद्ध में उलझा हुआ था। उस दशा में मेरा वध करके आपने कौन-सा यश प्राप्त किया?”
“इस संसार में सब लोग कहते हैं कि आप कुलीन, तेजस्वी, प्रजा-हितैषी, दयालु, उत्साही, समयोचित कार्य करने वाले और सदाचार के ज्ञाता हैं। आप दृढ़प्रतिज्ञ, सत्त्वगुणसंपन्न एवं करुणामयी हैं। संयम, इन्द्रिय निग्रह, क्षमा, धैर्य, धर्म, सत्य, पराक्रम तथा अपराधियों को दण्ड देना राजा के गुण हैं। आपमें भी ये सभी गुण विद्यमान हैं, ऐसा मानकर मैं तारा के मना करने पर भी सुग्रीव से लड़ने आ गया क्योंकि मुझे विश्वास था कि आप छिपकर मुझ पर वार करना उचित नहीं समझेंगे।”
“लेकिन आज मुझे पता चला कि आपकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। आप केवल दिखावे के लिए धर्म का ढोंग करते हैं, किन्तु वास्तव में आप अधर्मी और पापी हैं। जब मैं आपके राज्य में कोई उपद्रव नहीं कर रहा था और मैंने कभी आपका अपमान भी नहीं किया, तो आपने मुझ निरपराध को क्यों मारा?”
“मैं तो सदा फल-मूल खाता हूँ और वन में ही रहता हूँ। मैं आपसे युद्ध भी नहीं कर रहा था। आप एक सम्माननीय नरेश के पुत्र हैं। रघु के महान कुल में आप जन्मे हैं और धर्मपरायण के रूप में आपकी ख्याति है। फिर भी आप ऐसे क्रूर और कपटी कैसे निकले? मेरा युद्ध तो किसी और के साथ हो रहा था, फिर आपने इस प्रकार धोखे से मुझे क्यों मारा? यदि मुझसे कोई वैर था, तो आपने सामने आकर वीरों की भाँति मुझसे युद्ध क्यों नहीं किया?”
“जिस उद्देश्य के लिए आपने सुग्रीव को प्रसन्न करने की इच्छा से मेरा वध किया है, उसी उद्देश्य के लिए आपने मुझसे कहा होता, तो मैं एक ही दिन में जानकी को ढूँढकर आपके पास ला देता और उस दुरात्मा रावण के गले में रस्सी बाँधकर मैं उसे आपके अधीन कर देता।”
“अब मेरी मृत्यु के बाद राज्य सुग्रीव को प्राप्त होगा, जो उचित ही है। अनुचित केवल इतना ही हुआ है कि आपने अधर्म का आश्रय लेकर मुझे युद्धभूमि में छिपकर मारा है। इस जगत में जो भी आया है, एक न एक दिन उसे जाना ही है। अतः मुझे अपनी मृत्यु का कोई खेद नहीं है, किन्तु मुझे इस प्रकार छिपकर मारने का यदि कोई औचित्य आपने ढूँढ निकाला हो, तो अच्छी तरह सोच-विचारकर वह मुझे बताइये।”
ऐसा कहकर वानरराज बाली श्रीराम की ओर देखता हुआ चुप हो गया। उस बाण के आघात से उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी और उसका मुँह सूख गया था।
बाली की बातें सुनकर श्रीराम बोले, “वानर! धर्म, अर्थ, काम और सदाचार को तो तुम स्वयं ही नहीं जानते हो, फिर बच्चों की भाँति अविवेक से मेरी निंदा क्यों कर रहे हो?”
“यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की है। वे यहाँ के पशु-पक्षियों व मनुष्यों पर दया करने और उन्हें दण्ड देने के अधिकारी हैं। इस समय भरत हमारे राजा हैं और उनके ही आदेश से हम संपूर्ण जगत में धर्म का प्रसार करने निकले हैं।”
“अपने गुरु और बड़े भाई को भी पिता समान ही सम्मान देना चाहिए। उसी प्रकार छोटे भाई और उत्तम शिष्य को भी पुत्र के समान मानना चाहिए। तुम मुझे धर्म का उपदेश दे रहे हो, किन्तु तुम स्वयं ही सनातन धर्म का त्याग करके अपने ही छोटे भाई की स्त्री के साथ सहवास करते हो, जो तुम्हारी पुत्रवधु के समान है। इसी अपराध के कारण मैंने तुम्हें दण्ड दिया है।” “जो पुरुष अपनी कन्या, बहन अथवा छोटे भाई की स्त्री के प्रति ऐसी कलुषित बुद्धि से जाता है, उसका वध करना ही उपयुक्त दण्ड है। मैं क्षत्रिय हूँ, अतः तुम्हारे इस पाप को मैं क्षमा नहीं कर सकता। सुग्रीव के साथ मेरी मित्रता हो चुकी है। अब मेरे मन में उनका स्थान वही है, जो लक्ष्मण का है। मैंने उनका राज्य और पत्नी उन्हें वापस दिलाने की प्रतिज्ञा भी कर ली थी। उसे पूर्ण करना मेरा कर्तव्य है।”
“वानरराज! तुम भी इस बात को समझो और इसका अनुमोदन करो। जो राजा अपराधियों को दण्ड नहीं देता है, उसे स्वयं ही एक दिन उसका फल भुगतना पड़ता है। अतः पश्चाताप न करो। राजा अक्सर शिकार के लिए भी जाते हैं और सावधान अथवा असावधान पशुओं को भी घायल कर देते हैं या पकड़ लेते हैं। अतः तुम सावधान थे या नहीं, अथवा मुझसे युद्ध कर रहे थे या नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। मैंने तुम्हारा वध करके कोई अधर्म नहीं किया है।”
यह सुनकर बाली के मन में बड़ी व्यथा हुई। उसने हाथ जोड़कर श्रीराम से क्षमा माँगते हुए कहा, “श्रीराम! आपकी बात बिल्कुल ठीक है। मैंने पहले जो कुछ आपसे कहा था, उसे आप क्षमा करें। भगवन्! मुझे अपनी, तारा की या अपने बंधु-बान्धवों की बहुत चिंता नहीं है, किन्तु सोने का कंगन/बाजूबंद धारण करने वाले मेरे गुणवान पुत्र अंगद के लिए मुझे बहुत शोक हो रहा है।”
“श्रीराम! वह अभी बालक है। उसकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है। मेरा एकमात्र पुत्र होने के कारण मैंने बचपन से ही उसका बहुत दुलार किया है। अब मेरे न रहने पर वह बहुत दुःखी होगा। कृपया आप मेरे उस पुत्र की रक्षा कीजिएगा। सुग्रीव और अंगद दोनों के प्रति आप सद्भाव रखियेगा। अब आप ही उन दोनों के रक्षक और मार्गदर्शक हैं।”
तब श्रीराम ने भी बाली को इस बात का आश्वासन दिया…..उधर उसकी पत्नी तारा ने जब सुना कि युद्ध-क्षेत्र में श्रीराम के बाणों से बाली का वध हो गया है, तो तारा रोती हुई और अपने दोनों हाथों से सिर और छाती को पीटती हुई बड़े तेजी से बाली की ओर बढ़ी। थोड़ा निकट पहुँचने पर उसने देखा कि युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाला मेरा पराक्रमी पति भूमि पर पड़ा हुआ है। रणभूमि में जिसकी तीव्र गर्जना से शत्रु काँप उठता था, वह वीर आज अपने ही भाई के कारण छल से इस प्रकार मारा गया। थोड़ा और आगे बढ़ने पर उसने देखा कि अपने धनुष को धरती पर टिकाकर उसके सहारे श्रीराम खड़े हैं सुग्रीव भी उनके साथ ही हैं।
उन सबको पार करके वह रणभूमि में घायल पड़े अपने पति के पास पहुँची और उसे देखकर व्यथित हो गई। ‘हा आर्यपुत्र!’ कहकर वह विलाप करने लगी। तारा और उसके साथ खड़े अंगद की यह दशा देखकर सुग्रीव को बड़ा कष्ट हुआ और वह भी विषाद में डूब गया।
विलाप करती हुई तारा बोली, “हे कपिश्रेष्ठ! उठिये। मुझे सामने देखकर भी आज आप कुछ बोलते क्यों नहीं? आपको इस अवस्था में देखकर मैं शोक में डूबी जा रही हूँ। आज मुझे छोड़कर आप इस वसुधा का आलिंगन क्यों कर रहे हैं? क्या आपको स्वर्गलोक अब किष्किन्धा से अधिक प्रिय हो गया है, इसलिए आप मुझे छोड़कर स्वर्ग की अप्सराओं के पास जा रहे हैं?”…..“वानरेन्द्र! मैं आपका हित चाहती थी, पर आपने मेरी बात नहीं मानी और उल्टे मेरी ही निंदा की। आपने सुग्रीव की स्त्री को छीन लिया और सुग्रीव को घर से निकाल दिया। आपको उसी का यह फल प्राप्त हुआ है। श्रीराम ने इस प्रकार छल से आपको मारकर अत्यंत निन्दित कर्म किया है।”
“नाथ! अपने इस सुकुमार पुत्र अंगद को तो देखिये! आपने इसका इतना लाड़-दुलार किया था। अब क्रोध से ग्रस्त चाचा के वश में पड़कर इसकी क्या दशा होगी? आप अपने पुत्र को कुछ तो धैर्य बँधाइये और मुझसे भी तो कुछ कहिए। मैं इस प्रकार शोक और विलाप कर रही हूँ, फिर भी आज आप कुछ कहते क्यों नहीं। देखिये, आपकी अनेक सुन्दरी भार्याएँ भी यहाँ खड़ी हैं।”
ऐसा कहते-कहते तारा ने अब बाली के पास ही बैठकर आमरण अनशन का निश्चय कर लिया। अन्य वानर स्त्रियाँ भी दुःख से व्याकुल होकर क्रन्दन करने लगीं।
तारा का यह शोक देखकर हनुमान जी उसे समझाने के लिए आगे बढ़े। उन्होंने कहा, “देवी! तुम तो स्वयं बुद्धिमान हो। फिर पानी के बुलबुले जैसे इस अस्थिर जीवन के लिए क्यों शोक करती हो? तुम तो जानती हो कि जन्म और मृत्यु का कोई निश्चित समय नहीं है। अतः प्राणी को सदा शुभ कर्म ही करना चाहिए। जीव अपनी गुणबुद्धि से अथवा दोषबुद्धि से जो भी शुभ-अशुभ कर्म करता है, उन सबका फल उसे अवश्य भोगना ही पड़ता है। वानरराज बाली आज अपनी आयु पूर्ण कर चुके हैं। उन्होंने सदा नीतिशास्त्र के अनुसार ही अपने राज्य का संचालन किया है। निश्चित ही वे धर्मानुसार उच्च लोक में जाएँगे। अतः तुम उनके लिए शोक न करो।”
“भामिनि! अब तुम ही इस राज्य की स्वामिनी हो। सुग्रीव और अंगद दोनों इस समय शोकाकुल हैं। तुम इन्हें उचित मार्ग दिखाओ। वानरराज की अंत्येष्टि और राजकुमार अंगद का राज्याभिषेक किया जाए। अपने पुत्र को सिंहासन पर देखकर तुम्हें भी संतोष मिलेगा।”
हनुमान जी की ये बातें सुनकर तारा बोली, “अंगद जैसे सौ पुत्रों से भी मुझे अपना पति अधिक प्रिय है। पति के साथ अपने प्राण दे देना ही मेरे लिए उचित कार्य है। मुझे अब और कुछ नहीं चाहिए।”
यह सब कोलाहल सुनकर बाली ने धीरे से आँखें खोलीं। उसकी साँसों की गति धीमी हो गई थी और वह धीरे-धीरे ऊर्ध्व साँस लेता हुआ चारों ओर देखने लगा।
सबसे पहले उसने सुग्रीव को देखकर कहा, “सुग्रीव! निश्चित ही पूर्वजन्म के किसी पाप ने मेरी बुद्धि को नष्ट कर दिया था और मैं तुम्हें अपना शत्रु समझने लगा था। मेरे अपराधों को तुम भूल जाना। साथ रहकर सुख भोगना हम दोनों भाइयों के भाग्य में नहीं था, इसी कारण हम दोनों में प्रेम न होकर वैर उत्पन्न हो गया। भाई! इसी क्षण से तुम वानरों का यह राज्य स्वीकार करो क्योंकि अब मेरा यमराज के घर जाने का समय आ गया है।”
“मेरी एक बात को मानना तुम्हारे लिए कठिन होगा, किन्तु फिर भी तुम इसे अवश्य करना। देखो, मेरा पुत्र अंगद भूमि पर पड़ा है। उसका मुँह आँसुओं से भीग गया है। यह सदा सुख में पला है और मेरे लिए यह प्राणों से भी बढ़कर है। मेरे न रहने पर तुम ही इसे सगे पुत्र की भाँति मानना। इसके सुख-सुविधा और सुरक्षा का ध्यान रखना। यह बड़ा पराक्रमी भी है। राक्षसों से युद्ध में यह सदा तुम्हारे आगे चलेगा।”
“सुषेण की पुत्री यह तारा सूक्ष्म निर्णय करने व विभिन्न प्रकार के संकटों के लक्षण समझने में बड़ी निपुण है। यह जिस कार्य को अच्छा बताए, उसे निःसंदेह करना। उसके परामर्श का परिणाम सदा अच्छा ही होता है। श्रीराम का काम भी तुम अवश्य करना, अन्यथा अपमानित होने पर वे तुम्हें मार ही डालेंगे।”
फिर अंगद की ओर देखकर उसने स्नेहपूर्वक कहा, “बेटा अंगद! तुम देश-काल-परिस्थिति को समझना और उसी के अनुसार आचरण करना। सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय जो भी मिले, उसे सहन करना।”……“पुत्र! मेरा विशेष प्यार-दुलार पाकर तुम जिस प्रकार रहते आए हो, आगे भी वैसा आचरण करोगे तो सुग्रीव तुम्हें पसंद नहीं करेंगे। तुम उनके शत्रुओं का कभी साथ न देना। जो इनके मित्र नहीं हैं, उनसे भी कभी मत मिलना। अपनी इन्द्रियों को वश में रखकर सदा सुग्रीव के कार्य पर ध्यान देना और उन्हीं की आज्ञा के अधीन रहना। किसी के साथ अत्यंत प्रेम न करो और प्रेम का सर्वथा अभाव भी न होने दो क्योंकि ये दोनों ही भीषण दोष हैं। अतः तुम सदा मध्यम स्थिति का ही पालन करना।”
ऐसा कहते-कहते ही घायल बाली की आँखें घूमने लगीं, उसके दाँत खुल गए और अगले ही क्षण वानरराज के प्राण-पखेरू उड़ गए। यह देखकर सारे वानर जोर-जोर से विलाप करने लगे।
बाली की पत्नी तारा भी कटे हुए वृक्ष से लिपटी लता की भाँति अपने पति का आलिंगन करके भूमि पर गिर पड़ी और अपने पति को पुकारती हुई जोर-जोर से रोने लगी।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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जय श्री राम

Bahut achha hai….. Bali ka wadh aaj bhi ek yaksha prashna hai…..