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चंदन और कीचड़

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चंदन और कीचड़

एक दिन चंदन और कीचड़ का मिलन हो गया। दोनों अपनी-अपनी प्रशंसा के पुल बांधने लगे। चंदन बोला-‘भाई कर्दम ! मेरी बराबरी तू नहीं कर सकता । मेरी शीतलता से सारा संसार परिचित है। मेरे में इतनी बड़ी शक्ति है कि भयंकर दाह ज्वर की पीड़ा को भी मैं शांत कर सकता हूं। आग में झुलसते हुए मानव के लिए मैं त्राण हूं। रक्षक हूं। मेरे संसेवन से मानव का मानस शीतलता से भर जाता है । मैं बड़ा मूल्यवान् हूं। हर एक व्यक्ति मुझे नहीं खरीद सकता । मेरी मोहकता की महक हर व्यक्ति को आकर्षित करने में सफल हो रही है।’

कीचड़ ने रोष भरी भाषा में कहा-‘वन ! तू आत्म-प्रशंसा करने में बड़ा दक्ष है । केवल अपनी गुण-गाथा गा-गाकर मन-ही-मन फूल रहा है। मेरे में जो वैशिष्ट्य है वह तेरे में नहीं है, मैं सदा मुसकराता रहता हूं।’ ऐसे आपस में बात तन गयी। कोई भी झुकने को तैयार नहीं है। आखिर दोनों ने सोचा-ऐसे परस्पर झगड़े से समाधान नहीं मिलेगा। किसी निर्णायक के सामने बहस करना उचित रहेगा। वहां अवश्य ही सही समाधान मिलेगा। आखिर दोनों की सलाह से मेंढक को ही निर्णायक के रूप में स्थापित किया गया।

मेंडक ने दोनों पक्ष की बातें सुनीं। गहराई से सोचकर अपना निर्णय सुनाते हुए कहा-‘चंदन ! तुम चाहे कितनी ही आत्म-श्लाघा करो, किंतु कीचड़ की बराबरी नहीं कर सकते । संसार में सबसे शीतल तत्त्व कीचड़ है।’ आखिर मेंढक से अन्य निर्णय की आशा भी क्या की जा सकती थी? रात-दिन कीचड़ में ही आनन्द अनुभूति करने वाला मेंढक बेचारा चंदन के मूल्य का क्या अकन कर सकता है ? कदापि नहीं।

मित्रों” गोबर का कीड़ा गोबर में ही आनंदित रहता है। जो व्यक्ति जिसके गुणों से अपरिचित होता है वह उसकी प्रशंसा कभी भी नहीं कर सकता। वह उसे घृणा की दृष्टि से निहारता है। अतः हर एक के गुणों की जानकारी रखना प्रत्येक का कर्तव्य होता है।

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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