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रिश्तों का दर्द

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रिश्तों का दर्द

“अरे, आप इन्दू दी हैं ना…. यहां! इस इण्टरव्यू में !! इतने दिनों बाद!” प्रधानाचार्या रति शर्मा कक्ष के दरवाज़े को खोलकर अन्दर प्रवेश करती हुई महिला को देखकर चौंकते हुए बोली।  आश्‍चर्य से उनकी आंखें फैल गयी थीं। कॉलेज में वर्षों से रिक्त पड़े पदों को सेवानिवृत्त शिक्षकों से भरने के लिए उन्होंने जो विज्ञापन दिया था, उसी का आज इंटरव्यू चल रहा था। “हां, मैं इन्दू कुलश्रेष्ठ ही हूं.” मुस्कुराते हुए धीमी आवाज़ में उस महिला ने कहा।  “आइये… आइये… इधर बैठिए।” कहते-कहते रति शर्मा अपनी कुर्सी से लगभग खड़ी हो गई।   कॉलेज के मैनेजर डॉ. वर्मा तथा साक्षात्कार समिति के अन्य सदस्यों ने प्रश्‍नसूचक दृष्टि से पहले रति शर्मा, फिर उस नवागंतुका को देखा। सबकी जिज्ञासा के प्रत्युत्तर में रति शर्मा ने कुर्सी पर बैठते हुए उस महिला की ओर संकेत करते हुए कहा, “ये हैं मिसेज इन्दू कुलश्रेष्ठ… इस कॉलेज की भूतपूर्व प्रवक्ता…., जो वर्ष 1995 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर यहां से चली गयी थीं।

इन्हें स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति देने के लिए न पिछले मैनेजर साहब तैयार थे…. न ही भूतपूर्व प्रधानाचार्य डॉ. अस्मित निगम…, क्योंकि ये इस कॉलेज की बहुत ही योग्या एवं बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न शिक्षिका थीं। छात्राएं ही नहीं, हम सब शिक्षिकाएं भी इनका सम्मान करते थे और इनके कॉलेज से जाने के नाम पर ही व्यथित थे। लेकिन यह हम सबको रुलाकर यहां से चली ही गयीं…. और आज इतने दिनों बाद फिर इन्हें यहां इस तरह देखकर मैं सचमुच हैरान हूं।  सारे कॉलेज का आग्रह व रुदन जिसे न रोक सका, वही आज पुनः इसी कॉलेज में…” “हां…, मैं फिर यहां वापिस आ गयी।”  छोटा-सा उत्तर दिया उस महिला ने… जिसका गला भर आया था… और जो आंखों की नमी को छिपाने की पूरी कोशिश कर रही थी।  रति शर्मा एकटक उस महिला को कुछ पल देखती रही. फिर डॉ. वर्मा की ओर मुड़कर बोली, “भई मैनेजर साहब, अंग्रेज़ी प्रवक्ता के लिये इन्दू, मेरा मतलब है मिसेज इन्दू कुलश्रेष्ठ से बेहतर अन्य कोई शिक्षिका नहीं हो सकतीं।

मेरे विचार से सर्व सहमति से इन्हें ही इस पद के लिये चुन लिया जाए।” “हां-हां क्यों नहीं, जब ये इस विद्यालय की अध्यापिका रह चुकी हैं तो फिर और कुछ देखने-जानने की ज़रूरत ही क्या है?”  डॉ. वर्मा ने अपने अन्य सदस्यों की ओर देखा, जिन्होंने उनकी सहमति में सिर हिला दिये थे।  “लेकिन…” अभी वह महिला अपनी बात कह ही नहीं पायी थी कि रति शर्मा बीच में बोल पड़ी- “लेकिन-वेकिन कुछ नहीं, हम आप पर कोई एहसान नहीं कर रहे हैं। आपने जो यश अपनी योग्यता से अर्जित किया है, हम उसका केवल सूद ही आपको दे रहे हैं । इन्दू दी, उन दिनों मैं प्रधानाचार्या नहीं, बल्कि आपसे कनिष्ठ शिक्षिका थी। लेकिन छात्राओं की तरह ही मैं भी आप की ज़बरदस्त फैन थी। आपने इस कॉलेज को जो दिया, उसे मैं भूली नहीं हूं।”  कृतज्ञता की झलक इन्दू की आंखों में तैर रही थी।  वह जाने के लिए उठी ही थी कि रति शर्मा ने आग्रह पूर्वक कहा, “हां, एक बात और आज शाम को आप मेरे घर खाने पर आ रही हैं।” कॉलेज से घर आकर रति शर्मा के मन में इन्दू कुलश्रेष्ठ को लेकर तरह-तरह के विचार उठ रहे थे। इन्दू का पूरा अतीत उसकी आंखों में सजीव हो उठा।

इन्दू ने अपने बहनोई राजेश से विवाह किया तो सारा कॉलेज चकित था कि इतनी सुंदर, योग्य, आर्थिक रूप से पूर्णत: आत्मनिर्भर लड़की ने एक विधुर से, जिसका कि एक बेटा भी था, उससे विवाह क्यों किया?  लेकिन उसके निकट रहनेवाले जानते थे कि इन्दू को अपनी बहन के बच्चे स्मित से बहुत ही स्नेह था और वह नहीं चाहती थी कि कोई सौतेली मां उसके स्मित से दुर्व्यवहार करे, इसलिए राजेश के माता-पिता की ओर से राजेश की दूसरी शादी इन्दू से किए जाने का प्रस्ताव आते ही अपनी मां की कठोर अनिच्छा के बावजूद उसने हां कर दी थी। विदाई के समय आंसुओं से भीगा मां का चेहरा चूमकर उसने कहा था, “मां, तुम स्मित को छूकर कहो कि मैंने ग़लत किया। तुम मेरे लिए दुखी मत हो, राजेश मेरा ध्यान रखेंगे.” लेकिन शादी के कुछ ही महीने बाद ट्रेन दुर्घटना में राजेश की मृत्यु हो गयी। इन्दू का वैधत्व सारे कॉलेज को रुला गया। दूसरी शादी के कितने ही प्रस्ताव उसके घरवालों के पास आते, लेकिन उसका एक ही उत्तर था कि शादी के बाद कोई भी सौतेला पिता मेरे स्मित को हृदय से अपना नहीं पायेगा।

इसके बाद इन्दू का जीवन-चक्र स्मित के इर्द-गिर्द ही घूमने लगा। कॉलेज में भी कभी-कभी वह उसे ले आती। सभी उसे प्यार करते और पूछते कि तेरी मम्मा कौन है तो वह मुस्कुराता हुआ अपनी छोटी-छोटी उंगलियां इन्दू की ओर उठा देता। सब हंस पड़ते और इन्दू का चेहरा मातृत्व की गरिमा से खिल उठता। धीरे-धीरे दिन महीनों में, महीने वर्षों में बदलते गये।  स्मित की शिशु सुलभ क्रियाएं बालावस्था की क्रीड़ाओं का रूप लेने लगीं…. नर्सरी व के.जी. कक्षाओं को पार करते हुए स्मित विश्‍वविद्यालय के द्वार तक पहुंच गया।  इन्दू को बस एक ही धुन थी कि वह स्मित को अच्छी से अच्छी शिक्षा दे, जिससे वह बहुत बड़ा आदमी बन सके। समाज में धन के साथ ज्ञान भी अर्जित करे। इसके लिए उसने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

रति शर्मा को याद आ रहा था कि बीए पास करने के बाद स्मित जब आईएएस की तैयारी कर रहा था तो इन्दू ने कॉलेज से छुट्टी ले ली थी।  प्रिंसिपल ने उसके अवकाश प्रार्थना पत्र को देखकर हंस के पूछा था, “अरे भाई, आईएएस में बेटा बैठ रहा है। तुम तो नहीं ना, फिर ये छुट्टी किसलिए?” “मेरे घर पर रहने से उसकी पढ़ाई और अच्छी तरह से हो सकेगी। उसे अपनी पढ़ाई के आगे खाने-पीने तक की सुध नहीं रहती मैडम.” इन्दू ने प्रत्युत्तर दिया था। स्मित की परीक्षाएं समाप्त हो गयीं, तो सभी को स्मित के परीक्षा फल का बेसब्री से इंतज़ार था। इन्दू की नज़र तो अख़बारों में ही अटकी रहती। उसकी मनोदशा देखकर स्टाफ रूम में शिक्षिकाएं खुसर-फुसर करतीं। अधिकांश तो स्नेह से कहतीं, लेकिन कुछ ईर्ष्यावश भी कहतीं कि आख़िर इन्दू की तपस्या और स्मित की मेहनत रंग लाई। फिर आईएएस का परीक्षा फल निकला. सूची में स्मित दूसरे नम्बर पर था।  उस दिन कॉलेज में इन्दू व स्मित की ही चर्चा सबके मुख पर थी।

लोग इन्दू को बधाई दे रहे थे और इन्दू थी कि रोये ही जा रही थी। मारे ख़ुशी के उसके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। इसके बाद इन्दू के मुख पर अचानक प्रौढ़ता झलकने लगी। स्मित के ट्रेनिंग पर चले जाने के बाद वह सबसे कहने लगी “अब नौकरी करने का मन नहीं चाहता… बहुत थकान लगती है….. सोचती हूं, स्मित के नौकरी ज्वाइन करने के बाद मैं स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लूं।” “अरे, ऐसी भी क्या जल्दी है?”  सभी इन्दू का विरोध करते। सब जानते थे कि इन्दू कॉलेज की सभी क्रियाओं व कार्यक्रमों की धुरी थी। उसके जाने पर उसकी कमी को भर पाना आसान नहीं था…. लेकिन स्मित की ज्वाइनिंग के बाद इन्दू ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ही ली।

प्रधानाचार्या अस्मिता निगम ने उसे बहुत समझाया था कि सर्विस पूरी किए बिना बीच में सेवा निवृत्ति लेने से उसका आर्थिक रूप से नुक़सान ही है। लेकिन इन्दू को एक ही धुन थी, “अब मुझे पैसों की क्या चिन्ता? फिर स्मित भी तो नहीं चाहता कि मैं नौकरी करूं….. वह मुझे बहुत अच्छी तरह खिला-पहना सकता है…. बेटे की बात मैं कैसे टाल दूं?” आख़िर इन्दू कुलश्रेष्ठ ने विद्यालय छोड़ दिया और बेटे के साथ दिल्ली चली गयी। जाने से पहले कॉलेज आयी थी, सभी को बहुत शानदार पार्टी दी थी। रति शर्मा इन्दू से मिलकर बहुत रोयी थी।. कुछ महीनों तक इन्दू से पत्र-व्यवहार भी चलता रहा, लेकिन धीरे-धीरे यह सिलसिला भी समाप्त हो गया था। और आज अचानक उसी इन्दू कुलश्रेष्ठ को देखकर रति शर्मा अचंभित थी…. मन में उठ रहे हज़ार प्रश्‍न उसे विस्मित कर रहे थे।

नौकरी बीच में छोड़ कर जानेवाली इन्दू दी फिर वापिस क्यों चली आयी…. अचानक कॉलबेल बज उठी।  उसने स्वत: दौड़कर दरवाज़ा खोला तो देखा इन्दू खड़ी थी। रति शर्मा इन्दू से लिपट गयी। कॉलेज में सबके सामने जो संकोच था, वह नौकर-चाकरों के सामने स्थिर न रह सका. मैं बहुत बेचैनी से आपकी प्रतीक्षा कर रही थी। आपसे बहुत-सी बातें पूछने का मन हो रहा था जो सबके सामने न पूछ सकी, इसलिए रात के भोजन के नाम पर आपको बुला लिया। यहां कैसे आयीं? घर कहां है? स्मित का यहां स्थानान्तरण हो गया है क्या…?” आदि तमाम प्रश्‍न रति शर्मा ने एक साथ इन्दू से कर डाले।

“अरे भाई, बैठने भी दोगी या यहीं से सब प्रश्‍न पूछ लोगी।” इन्दू ने एक फीकी मुस्कान के साथ कहा। “हां-हां, आइए, आराम से ड्रॉइंगरूम में बैठकर बातें करते हैं।” कह कर रति इन्दू को अन्दर ले गयी और कॉफी के लिए पास खड़े नौकर से कह दिया। उसके जाते ही रति ने बेचैन होकर कहा, “आख़िर कौन-सी मजबूरी आपको फिर यहां ले आयी दीदी? मैं यही जानने के लिए सबसे ज़्यादा बेचैन हूं।”  “नियति… मेरी नियति मुझे फिर यहां ले आई। मनुष्य की जीवन-डोरी का सूत्रधार तो वह ऊपरवाला ही है न…” इन्दू की आंखों में एक खालीपन था। “देखिये, पहेलियां न बुझाइए, अगर बताने योग्य हो तो खुलकर कहिए, मैं बहुत अधीर हो रही हूं.” रति ने कहा था।

“तुमसे क्या छिपाना रति… और छिपाने जैसा कुछ है भी नहीं.” इन्दू ने कहना आरम्भ किया, “कॉलेज को तिलांजलि देकर मैं तुम सबको छोड़कर चली गयी…. स्मित को लेकर ही मैंने जीवन का ताना-बाना बुना था। तुम तो जानती हो वही मेरा अतीत था, वही वर्तमान और वही मेरा भविष्य भी था।  दिल्ली में स्मित के ज्वाइन कर लेने पर उसके लिए रिश्तों की जैसे बाढ़-सी आ गयी थी। एक से एक उच्च अधिकारियों की सुन्दर से सुन्दर लड़कियों के प्रस्ताव आ रहे थे। स्मित के पास तो सबके लिए एक ही जवाब था, “जो मां की पसन्द, वही मेरी पसन्द।” लेकिन स्मित के इस उत्तर ने मेरे ऊपर सुसंस्कृत व सुशील लड़की ढूंढ़कर लाने का दायित्व और बढ़ा दिया था। बहुत सोचने-समझने के बाद एक सुसंस्कृत, शिक्षित परिवार की कन्या से मैंने स्मित का विवाह कर दिया। स्मित की पसन्द मैं जानती थी। उसके लिए रूप से अधिक गुण का महत्व था। बहुत आधुनिक, नाज़-नखरेवाली लड़कियों से वह दूर ही रहता था। मेरा श्रम-साध्य जीवन उसके लिए आदर्श था। वह प्रशासनिक सेवा में था, इसलिए उसकी नौकरी मेरी नौकरी की प्रकृति से बिल्कुल भिन्न थी। फिर भी वह प्राय: कठिन प्रसंगों में मुझसे राय ले लेता। “स्मित की बहू शुचि के आ जाने पर मैं बहुत हल्कापन महसूस करने लगी थी। घर से लेकर बाज़ार तक के सारे कार्यों में शुचि का मेरे साथ होना मुझे बहुत सुखद लगता।

सारा जीवन अकेले ही सब करते-करते मैं थक गयी थी। स्मित भी शुचि को पाकर प्रसन्न था। उसे लगता कि वह उसके विचारों के अनुरूप ही होगी और वह मुझे वैसा ही मान-सम्मान देगी जैसा कि वह स्वयं देता है। वह प्राय: मेरे अतीत की चर्चा शुचि से करता और अपने आईएएस अधिकारी बनने का पूरा श्रेय अपनी लगन व परिश्रम को न देकर मुझे ही देता, जिसे सुनकर मुझे ऐसा लगता जैसे मैं धरती पर नहीं, आकाश पर पांव रखकर चल रही हूं। किन्तु उसका ऐसा मानना और ऐसी सोच ही उसके दाम्पत्य जीवन के सुख का कांटा बन गयी। एक दिन मैं बाहर लॉन में टहल रही थी कि अचानक स्मित के कमरे से ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ आने लगी। मैं पास से गयी तो शुचि स्मित पर नाराज़ हो रही थी, “तुम्हें मां के सिवाय भी कुछ दिखता है? हर बात में मां ही मां रहती हैं।  तुम्हारी मां ने त्याग किया तो कौन-सी बड़ी बात है? सभी की मां ऐसा ही करती हैं। लेकिन सब तुम्हारी तरह मां की माला नहीं जपते।” “अच्छा धीमे बोलो, मां सुनेंगी तो उन्हें दुख होगा।” स्मित ने शुचि को डांटते हुए कहा। “मेरी बला से, सुन ले तो अच्छा ही है।” शुचि का स्वर और ऊंचा हो गया. “कम से कम पीछा तो छोड़ दें।” शुचि के मुंह पर शायद स्मित ने हाथ रख दिया था, इसलिए दबी आवाज़ के सिवाय मुझे कुछ नहीं सुनाई दिया।” इन्दू का चेहरा म्लान हो गया था। मैं फिर कुछ देर के लिए रुककर उन्होंने बातों का क्रम आगे बढ़ाया। “उस दिन के बाद रोज़ किसी न किसी बात पर शुचि स्मित से झगड़ने लगी। स्मित जितना ही उसे ख़ुश रखने व समझाने की कोशिश करता, वह उतना ही उस पर हावी होने का प्रयास करती।

उन दोनों के झगड़े से अनजान बनकर मैंने धीरे-धीरे अपने को समेटना आरम्भ कर दिया। बीमारी का बहाना बनाकर मैं उनके साथ घूमने से बचने लगी। रसोई की सब्ज़ियों से लेकर कपड़ों की ख़रीदारी तक में मैं शुचि की पसन्द को ही महत्व देने लगी। लेकिन इस पर भी वह सामान्य नहीं रहती थी। स्मित सब समझता था। वह मुझे अलग हटते देखकर मन ही मन दुखी था। प्रात: मेरे पास बैठता। सोने से पहले मेरा हाल लेता, दवा आदि देता। कहता तो कुछ नहीं था, लेकिन अन्दर से वह सुखी भी नहीं था, मां और पत्नी को लेकर उसका जीवन उलझ रहा था…” “आपने शुचि को उसके दुर्व्यवहार के लिए कुछ कहा क्यों नहीं? अध्यापिका होने पर भी क्या आपके पास शब्दों की कमी थी?” रति शर्मा ने बीच में इन्दू से पूछा।

“नहीं, शब्दों की कमी तो मेरे पास कभी नहीं रही, लेकिन जीवन के कुछ ऐसे मार्मिक प्रसंग होते हैं, जहां शब्दों की नहीं भावनाओं की और समझ की आवश्यकता होती है। ईर्ष्या और दुराग्रह का निदान शब्दों से नहीं किया जा सकता। मैंने शुचि को प्यार व स्नेह देने में कोई कसर नहीं रखी थी, फिर उसका मुझसे चिढ़ना, यह ईर्ष्या के अतिरिक्त कुछ नहीं था। वह स्मित के जीवन से मुझे निकाल फेंकना चाहती थी। अतीत को तो वह बदल नहीं सकती थी, लेकिन भविष्य को वह अवश्य बदलना चाहती थी, जिसमें मेरा कोई चिह्न न हो। मैंने जीवन के बहुत उतार-चढ़ाव देखे हैं, जाने कितने लोगों से मिली हूं, इसलिए किसी के व्यवहार से उसका मन समझ लेना मेरे लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। मैं झगड़कर अपना हक़ लेने में विश्‍वास नहीं करती।

जानती हूं, इससे सम्बन्धों की खाइयां गहरी ही होती जाती हैं।” “तो क्या शुचि ने आपको घर से निकाल दिया?” अभी रति की बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि इन्दू ने बीच में ही उसे रोक दिया, “नहीं-नहीं, मैं ऐसी कमज़ोर भी नहीं कि कोई मुझे निकालता और न ही स्मित ऐसा होने देता। लेकिन मुझे ऐसा लगने लगा कि मेरी निरन्तर उपस्थिति स्मित के जीवन को संकटमय अवश्य बना देगी। सम्बन्धों में कटुता न आने देने के लिए मुझे ही मोह त्याग करना पड़ेगा, इसीलिए मैंने अध्यापन से पुन: जुड़ने का प्रस्ताव स्मित के सामने रखा। यह जानकर उसे बहुत दुख हुआ। कहने लगा कि सारा जीवन नौकरी से तुम्हारा मन नहीं भरा मां, जो इस उम्र में मेहनत-मज़दूरी करोगी। लेकिन मैंने यह कहकर अपना तर्क रखा कि मेहनत-मजदूरी नहीं, अध्यापन तो मेरे खालीपन का उपचार है। मेरा जीवन इसी को समर्पित रहा है…

यही मेरे सारे दुख-दर्द का मरहम है। स्मित चुपचाप मेरा मुंह देखता रहा। शायद मेरे अन्दर की पीड़ा को वह समझ रहा था। फिर दूसरे दिन जब रोज़गार कार्यालय के दैनिक पत्र में मैंने इस कॉलेज का विज्ञापन देखा। सेवानिवृत्त शिक्षिकाओं को नियुक्ति देना कुछ अविश्‍वसनीय अवश्य लगा, फिर भी मैंने प्रार्थना पत्र दे दिया और जब इंटरव्यू के लिए पत्र मिला, तो मुझे स्मित से हटकर रहने का ख़ूबसूरत बहाना मिल गया। उसने मुझे बहुत रोका, लेकिन मैं बराबर उससे मिलते रहने का आश्‍वासन देकर चली आई।” इन्दू की आंखों के आंसू थम नहीं रहे थे।

रति शर्मा ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “मैं होती तो शायद यह नहीं करती जो आपने किया।” “नहीं रति, कभी-कभी अपनों को ही सुखी देखने के लिए अनचाहे, कठोर निर्णय लेने पड़ते हैं। वह मां ही क्या जो बच्चों के लिए त्याग न कर सके। सम्बन्धों को समाप्त करने या बिगाड़ने से अच्छा है उन्हें बहानों की आड़ में एक सुन्दर मोड़ दे दिया जाए।” इन्दू की दबी हुई रुलाई फूट पड़ी थी और रति शर्मा मूक होकर तपस्विनी मां को दर्द से मोम की तरह पिघलते हुए देख रही थी।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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