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राखी

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हर रोज की तरह सुबह – सुबह सिटी बस ग्यारह नंबर स्टॉप पर रुकी और बाकी सवारियों के साथ- साथ एक बूढ़ी  औरत एक हाथ में थैला और एक हाथ में लाठी लिए जैसे तैसे धीरे – धीरे बस में चढ़ने लगी।

माताजी जल्दी चढ़ो और भी लोग हैं, आगे भी जाना है यहीं थोड़ी बस को खड़े रहना है कंडक्टर चिल्लाया । हां बेटा बस- बस चढ़ गई कांपती सी धीमी आवाज में बुढ़िया बोली ।

कहां जाना है आपको किराया लेते हुए कंडक्टर ने बुढ़िया से पूछा। आगे गणेशपुरा स्टॉप आएगा बस वहीं मुझे उतार देना बेटा बुढ़िया ने जवाब दिया। ठीक है उतार दूंगा बोलकर कंडक्टर बाकी सवारियों से किराया लेने में मशगूल हो गया ।

एक के बाद एक स्टॉप आने के बाद गणेशपुरा स्टॉप आया तो कंडक्टर ने आवाज दी- लो माताजी  स्टॉपेज आ गया आपका उतरो जल्दी से ।

अपनी सीट से उठकर

टक टक टक लाठी टिकाती हुई वो  बुढ़िया धीरे धीरे बस के गेट की तरफ बढ़ने लगी।

जल्दी उतरो माताजी चला नहीं जाता तो जरूरी है क्या बुढ़ापे में बसों में धक्के खाना घर पर बैठे रहा करो सबको देर करा रहे हो कंडक्टर झुंझलाते हुए चिल्लाया।

बुढ़िया रुकी और बोली – बेटा आज रक्षाबंधन है मेरे तो एक ही भाई है और उसके मैं एक बहन । मैं घर पर बैठ गई तो उसको राखी कौन बांधेगा और मैं उसी को राखी नहीं बांधूंगी तो किसको बांधूंगी।जब तक जिंदा हूं राखी बांध रही हूं, इसलिए बसों में धक्के खा लेती हूं। क्या पता ये मेरी आखिरी राखी हो।

कंडक्टर कुछ ना बोला बस में भी एक चुप्पी सी छा गई।

सुन रही थी तो केवल बस से उतरती हुई बुढ़िया की लाठी की टक टक टक।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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