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भक्ति की शक्ति

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भक्ति की शक्ति

          एक गाँव में एक बुज़ुर्ग महिला रहती थी। सब उसे प्यार से भोली माई कहते थे।            भोली सच में उतनी ही सरल थी जितना उसका नाम। जो कोई कुछ कह दे-वो मान लेती, किसी से कभी झगड़ा न करती, दिनभर नाती-पोतों को खिलाती रहती,और रोज़ मंदिर जाकर ठाकुर जी के दर्शन करती।

जब लोग पूछते-“माई, मंदिर जाने से क्या मिलता है?”

भोली हंसकर कहती:“ठाकुर जी मिल जाते हैं… और क्या चाहिए?”

लोग हँस पड़ते, उसका मज़ाक उड़ाते, पर भोली किसी का बुरा कभी न मानती।

एक दिन मंदिर के पुजारी को किसी काम से बाहर जाना था। उन्होंने भोली से कहा: माई, तू तो रोज़ ठाकुर जी से मिलने आती है। दो दिन उनकी पूजा-सेवा भी कर दे। भोजन बना देना, आरती कर देनाहम लौटकर संभाल लेंगे।भोली तुरंत मान गई-

“ठाकुर जी की बात है पंडित जी, दो दिन क्या… जैसा बनेगा कर दूँगी।” भोली भगवान को मूर्ति नहीं, जीवंत मानुष की तरह मानती थी। वह अक्सर पुजारी से कहती-“इतना काम क्यों करते हो? भगवान से कहो… थोड़ा अपना काम खुद भी कर लिया करें!”

पुजारी मुस्कुराकर रह जाते। उन्हें लगता—“ये भोली है, इसे क्या समझाऊं!

   पुजारी जी चले गए और मंदिर की जिम्मेदारी भोली के हाथों में आ गई। पहली सुबह उसने पानी की बाल्टी रखकर कहा: आओ ठाकुर जी, अपने आप नहा लोहम बूढ़े अब कहाँ इतना काम कर पाएंगे।और तभी-जैसे भक्ति के आगे प्रकृति झुक गई हो-ठाकुर जी स्वयं आकर स्नान करने लगे।

 भोली बोली: “कपड़े पहन लो, चंदन यहीं रखा है। जल्दी तैयार हो जाओ।”ठाकुर जी ने सब कुछ स्वयं कर लिया।

भोली ने भोजन बनाया, थाली सजाई-“आओ, अपने आप भोजन कर लो ठाकुर जी।”

भगवान ने भोजन भी कर लिया।दो दिन ऐसे ही बीत गए-भोली अपने निरभिमान प्रेम से सेवा करती रही, ठाकुर जी स्वयं उसके कहने पर सारे काम करते रहे।

जब पुजारी लौटे, तो उन्होंने भोली से पूछा:“माई, हमारे ठाकुर जी की सेवा ठीक से की न?”

भोली सहजता से बोली:“हमने तो बस भोजन बनाया… बाक़ी ठाकुर जी ने ही सब काम खुद किए। हमसे कहाँ होता है इतना?”

पुजारी हँस पड़े-उन्हें विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कहा:“माई, एक दिन और सेवा कर दे… फिर अपने घर चली जाना।”भोली मान गई।

इस बार पुजारी मंदिर में छुपकर बैठ गए-देखने के लिए कि भोली आखिर करती क्या है।भोली ने वैसे ही पुकारा:आओ ठाकुर जी,जल्दी आओस्नान कर लो।और तभी:साक्षात भगवान प्रकट हो गए।उन्होंने अपने आप स्नान किया, वस्त्र धारण किए, जैसे पिछले दो दिनों से कर रहे थे।

इस दृश्य को देखकर पुजारी की आँखों से आँसू बह निकले।उनका शरीर काँपने लगा-वो रोते हुए ठाकुर जी के सामने गिर पड़े।जैसे ही उन्हें देखा, भगवान अंतर्धान हो गए…पुजारी भोली के पैरों में गिर पड़े-“माई, धन्य हो! आज तुमने मुझे सचमुच भगवान के दर्शन करा दिए।

मैंने सालों सेवा की… पर विश्वास की कमी थी। तुम्हारी भक्ति ने मेरी आँखें खोल दीं।”जैसा भगवान स्वयं कहते हैं:“निर्मल मन जन सो मोहि पावा।”“मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥”

भगवान किसी के आडंबर से नहीं,निर्मल प्रेम, विश्वास और सरल हृदय से प्रसन्न होते हैं। और भोली माई की तरह-निर्लेप, निष्कपट, विश्वासपूर्ण भक्ति ही भगवान को बाध्य कर देती है आने को।

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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