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निर्मल हृदय की दीपावली

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निर्मल हृदय की दीपावली

कार्तिक अमावस्या की रात थी। आकाश में न तारा चमक रहा था, न चाँद की किरणें थीं—चारों ओर केवल गहरा, अंधकार फैला हुआ था। सारे जीव जैसे किसी मौन पूजा में लीन थे। ऐसी शुभ रात्रि में, जब संसार की समस्त शक्तियाँ अपने चरम पर होती हैं, माता लक्ष्मी ने पृथ्वीलोक पर भ्रमण का निश्चय किया।

वे पृथ्वी पर उतरीं, अपने सौम्य साधारण वेश में — न आभूषणों की चमक, न अलौकिक तेज — केवल एक साध्वी स्त्री के विनम्र स्वरुप में । माता चाहती थीं कि इस पावन अमावस्या की रात वे किसी ऐसे स्थान पर विश्राम करें, जहाँ सच्ची सेवा और निर्मल भावनाएँ हों।

वे गांव-गांव घूमीं। गाँव के घरों में लोग दीपावली के उत्सव के पश्चात् गहरी नींद में थे। कहीं दीपक बुझ चुके थे, कहीं दरवाजे बंद। लक्ष्मी जी ने कई द्वारों पर दस्तक दी, पर किसी ने भी उत्तर न दिया। हर घर के दरवाजे बंद थे, मानो स्वागत का भाव कहीं गुम हो गया हो।

थोड़ी दूर चलने पर, जंगल के किनारे एक छोटी सी झोपड़ी दिखाई दी। मिट्टी की दीवारें, फूस की छत, और दरवाजे के पास एक छोटा-सा दीपक टिमटिमा रहा था, मानो उसने अंधकार से जूझने का प्रण ले रखा हो। उस दीपक के प्रकाश में एक वृद्धा बैठी थी, जो अपने पुराने चरखे पर सूत कात रही थी। उसके चेहरे पर गरीबी थी, पर उसके मन में संतोष और श्रद्धा का प्रकाश था।

माता लक्ष्मी जी ने झोपड़ी के पास जाकर धीरे से कहा, “माँ, क्या मैं आज रात्रि के लिए तुम्हारे यहाँ ठहर सकती हूँ? ”वृद्धा ने चरखा रोककर देखा और मुस्कराई। “बेटी, मेरा घर तो छोटा है, पर हृदय बड़ा है। आओ, भीतर चलो। तुम्हारे लिए जो थोड़ा-बहुत है, वही मेरा सौभाग्य है।” वह अतिथि को भीतर ले गई। मिट्टी के चूल्हे पर रखा उबला हुआ दूध गर्म कर लायी और कांसे के कटोरे में परोस दिया। उसने अपने बिस्तर पर लक्ष्मी जी को विश्राम करने को कहा, और स्वयं चरखे के पास बैठकर काम करती रही, ताकि अतिथि की नींद में विघ्न न पड़े। चरखे की मधुर ध्वनि और दीपक की लौ के संग माता धीरे-धीरे उनींदी हो गई और करवट लेकर सो गई।प्रभात की पहली किरण जब झोपड़ी की दीवारों से होकर भीतर आई, वृद्धा धीरे-धीरे जागी। उसने देखा—दीपक की उजास अब सोने की आभा में बदल चुकी थी। चरखा रत्नजटित लग रहा था, और फूस की झोपड़ी अब एक भव्य महल बन चुकी थी। चाँदी की दीवारें, सोने के पात्र, और अनाज के भंडार चारों ओर बिखरे थे।
क्षणभर के लिए वृद्धा को लगा कि शायद वह स्वप्न देख रही है, पर तभी भीतर से एक मधुर, दिव्य स्वर गूँजा — “माँ, तेरे सादगी भरे सत्कार और निष्काम सेवा से मैं प्रसन्न हूँ। अब यह समृद्धि तेरे जीवन में स्थायी रहेगी।

”वृद्धा ने आँसू भरी आँखों से आकाश की ओर देखा और हाथ जोड़ कर कहा, “देवी माँ! मैंने तो केवल एक अतिथि का स्वागत किया था।”

आकाश से स्वर आया, “यही तो असली पूजा है — न सोने के दीप, न बड़े भवन, केवल निर्मल हृदय और प्रेम-भाव।”

उस दिन से वह गाँव समृद्ध हो उठा। लोग कहते हैं, जहाँ उस वृद्धा की झोपड़ी थी, वहाँ आज भी दीपावली की रात को एक उजला प्रकाश स्वयं प्रकट होता है, सच्ची धनलक्ष्मी वहीं बसती हैं, जहाँ विनम्रता और दया का दीपक सदा जलता रहे।
आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें 🙏

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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