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अमावस्या की रात और अलक्ष्मी का साया

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अमावस्या की रात और अलक्ष्मी का साया

जयपुर की ‘शांति निवास’ हवेली, नाम के विपरीत, भीतर से अशांत थी। बाहर जहाँ बाज़ार में दीवाली की चहल-पहल थी, वहीं हवेली के विशाल चौक में अर्जुन के परिवार के बीच तनाव का धुआँ उठ रहा था हवेली सदियों पुरानी थी, जिसकी झरोखेदार खिड़कियों से गुज़रकर आती रौशनी भी भीतर के अँधेरे को पूरी तरह मिटा नहीं पाती थी। अर्जुन, जो एक आधुनिक, तर्कवादी व्यवसायी था, इन पुरानी दीवारों और किंवदंतियों पर हँसता था, पर आज उसका माथा ठनका था।

धनतेरस की शाम को, ताश खेलने की परंपरा के दौरान, परिवार में ज़मीन के एक पुराने सौदे को लेकर तीखी बहस हुई थी। अर्जुन का छोटा भाई, विक्रम, भारी क़र्ज़ में डूबा हुआ था, और शक की सुई स्वाभाविक रूप से उसी पर अटकी थी।

उसी बहस के बीच, हवेली के पूजा घर से एक सदियों पुरानी, बेहद ज़रूरी चीज़ ग़ायब हो गई थी: चाँदी का श्री यंत्र सिक्क, जिसे लक्ष्मी पूजा के ‘वृषभ लग्न’ मुहूर्त में स्थापित किया जाना था।

“अलक्ष्मी का साया है ये,” दादी ने काँपते हुए कहा, “हमारे पुरखों ने जगतपुरा की ज़मीन हड़पी थी। उन ग़रीबों के शाप ने दरिद्रता को हमारे घर का रास्ता दिखा दिया है।” अर्जुन ने दादी की बात को महज़ अंधविश्वास मानकर ख़ारिज कर दिया, पर जब उसने पुराने बही-खातों में अपने दादा के उस कपटपूर्ण सौदे का ज़िक्र पढ़ा, तो उसके तर्कवादी मन में भी एक दरार पड़ गई।

उस रात, चौक में जलाया गया सबसे बड़ा अखंड दीया— जिसे पूरी रात जलना था—बार-बार बुझ रहा था, मानो कोई अदृश्य शक्ति रोशनी को सहन नहीं कर पा रही हो।

अगले दिन, अमावस की रात, मुख्य दीवाली थी। अर्जुन ने विक्रम को हवेली के एक पुराने और सालों से बंद पड़े कमरे में ताला लगाकर बंद कर दिया। उसका मानना था कि विक्रम ने ही सिक्का चुराया है।

दीपावली की रात, जब आतिशबाज़ी का शोर और धुआँ चरम पर था, अर्जुन हवेली की घुमावदार सीढ़ियों और पतली गलियों में सिक्के को ढूँढ रहा था। झरोखों के जालीदार पर्दों से उसे बाहर की हल्की-सी झलक मिल रही थी, जिससे हवेली और भी अधिक क़ैदख़ाना सी लग रही थी। उसे लगा कि कोई उसे देख रहा है, एक सफ़ेद परछाईं—बिलकुल वैसी ही, जैसी जगतपुरा के शापित भूतों की किंवदंतियों में बताई जाती थी।

तभी हवेली के पिछवाड़े की “फुसफुसाती दीवारों” से, जहाँ आवाज़ें गूँजती थीं, उसे टूटे-फूटे शब्दों में कुछ सुनाई दिया। वह भागा और विक्रम के कमरे तक पहुँचा।

“विक्रम, सिक्का कहाँ है?” अर्जुन ने लगभग चीख़ते हुए पूछा।

टूटे हुए दरवाज़े से बाहर निकलकर विक्रम ने हाँफते हुए कहा, “मैंने सिर्फ़ कुछ गहने चुराए थे, पर सिक्का नहीं। मैंने… मैंने रघु को देखा था!”

रघु! हवेली का भरोसेमंद मैनेजर, जो पीढ़ियों से परिवार की सेवा कर रहा था। विक्रम ने कसम खाई कि उसने रघु को एक सुरंग के रास्ते से आते-जाते देखा था, और उसने ही सफ़ेद चादर ओढ़कर भूत होने का ढोंग रचा था। रघु, उस जगतपुरा ज़मीन सौदे के पीड़ितों में से एक का वंशज था !

अर्जुन चौक की तरफ़ भागा, जहाँ पूजा की तैयारियाँ हो रही थीं। दरवाज़े पर पहुँचते ही उसे अहसास हुआ कि बाहर का मुख्य दरवाज़ा, जो रघु ने भीतर से बंद कर दिया था। अब वे पूरी तरह अलग-थलग पड़ चुके थे।

तभी रघु चौक के केंद्र में प्रकट हुआ। उसके हाथों में चाँदी का श्री यंत्र सिक्का था। “तुमने मेरी दरिद्रता पर अपनी लक्ष्मी बनाई थी। आज अमावस की रात है, अलक्ष्मी का समय,” रघु ने चीख़ते हुए कहा। “मुहूर्त ख़त्म होने से पहले, मैं तुम्हारी लक्ष्मी को भी मिटा दूँगा।”

और इससे पहले कि अर्जुन कुछ कर पाता, रघु ने ज़मीन पर सिक्का दे मारा। श्री यंत्र सिक्का खराब हो गया।

घड़ी में 7:10 PM बज रहे थे। लक्ष्मी पूजा का प्रदोष काल मुहूर्त 7:15 PM पर शुरू होने वाला था, और 8:00 PM पर ख़त्म। अर्जुन के पास केवल 50 मिनट बचे थे।

आतिशबाज़ी का शोर इतना अधिक था कि रघु और अर्जुन के बीच की हाथापाई, चीख़ें और टूटने की आवाज़ें उस शोर में दब गईं। यह ‘धुएँ का पर्दा’ रघु के लिए कवच बन चुका था।

“मुहूर्त ख़त्म!” रघु हँसते हुए बोला, “अब तुम्हें कोई लक्ष्मी नहीं बचा सकती। मैंने तुम्हारे सारे पैसे एक नए खाते में ट्रांसफ़र करने का कोड डाल दिया है। जैसे ही मुहूर्त ख़त्म होगा, क़र्ज़ और अलक्ष्मी दोनों सदा के लिए तुम्हारे घर में रह जाएँगे।”

अर्जुन को याद आया कि दादी ने कहा था कि दरिद्रता का निवारण केवल ‘शुद्धि’ (पवित्र इरादे) से होता है, किसी भौतिक वस्तु से नहीं। सिक्का एक प्रतीक था, पर असली शक्ति तो श्रद्धा में थी।

7:59 PM. रघु मुख्य दीये को बुझाने के लिए लपका। अगर वह दीया बुझ जाता, तो पूजा बीच में ही रुक जाती और मुहूर्त का समय निकल जाता।

अर्जुन ने ज़मीन पर गिरी हुई पीतल की छोटी-सी डिब्बी उठाई, जिसमें पूजा के लिए शुद्ध सोना रखा था। यह सोना किसी क़र्ज़ या सौदे से नहीं जुड़ा था, बल्कि शुद्ध भक्ति का प्रतीक था। रघु दीये को छूने ही वाला था कि अर्जुन ने रघु को ज़ोर से धक्का दिया और खराब हुए सिक्के की जगह, उस सोने की डिब्बी को पूजा स्थान पर रख दिया।

पंडित जी ने तुरंत, बिना एक क्षण गंवाए, अंतिम और सबसे शक्तिशाली दरिद्र निवारण मंत्र का पाठ शुरू कर दिया।

घड़ी में 8:00 PM बज गए। मुहूर्त समाप्त हो गया था।

अलक्ष्मी का साया छँटा। रघु का चेहरा पीला पड़ गया। बाहर के आतिशबाज़ी के कारण हवेली के अन्दर बिजली की लाइन में एक ज़ोरदार चमक हुई, और रघु का ट्रांसफर कोड जो मुहूर्त ख़त्म होते ही ट्रिगर होने वाला था, क्रैश हो गया। रघु का वित्तीय षड्यंत्र विफल हो गया, क्योंकि उसके षड्यंत्र की नींव से अर्जुन के परिवार का आध्यात्मिक पतन समाप्त हो चुका था।

अर्जुन ने रघु को पकड़ लिया। हवेली के बाहर के बाज़ार का शोर अब राहत की ध्वनि जैसा लग रहा था।

आधी रात को, जब आकाश पूरी तरह शांत हो चुका था, अर्जुन ने पहली बार पूरे मन से वह अनुष्ठान किया जिसने घर से अलक्ष्मी को बाहर कर दिया।

अगली सुबह, हवेली में रौशनी थोड़ी कम थी, क्योंकि उनके पास अब पहले जितनी दौलत नहीं थी। क़र्ज़ अभी भी था, पर हवेली की दीवारों से अशांति और संदेह का बोझ उतर चुका था। अर्जुन ने महसूस किया कि उसने असली ‘दरिद्रता’ (संदेह और लालच) को अपने भीतर से बाहर कर दिया था। लक्ष्मी लौट आई थीं, पर इस बार वह दौलत नहीं, बल्कि परिवार के सामंजस्य और शुद्धि के रूप में ।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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