गजानन एकदन्त होने के पीछे अभूतपूर्व रहस्य
कार्तवीर्य को परशुराम जी वध करने के बाद उसके सौ पुत्र मिलकर परशुराम जी को मारने के लिए मैदान में उतर गए थे। परिणाम स्वरूप परशुराम जी के दिव्य फरसे से उन में से 95 पुत्र तो पल भर में मारे गए और शेष पांचों भयभीत होकर वंहा से भाग गए थे।
इसी कांड के बाद परशुराम जी शिवलोक को आकर नंदी जी की आज्ञा से अंदर प्रवेश किया था। जब उन्होंने शिव- मन्दिर में प्रवेश करने की कोशिश की, तब मातृ आदेश से द्वारपाल बने गजानन जी ने उनसे नम्रतापूर्वक कुछ समय प्रतीक्षा करने के लिए कहा था। क्यों कि मातापिता उस समय विश्राम कर रहे थे। किन्तु परशुराम ने गणेश जी को बालक समझकर गुरुत्व नहीं दिया था। खुद शिव- पार्वती जी को प्रणाम कर कार्तवीर्य और उसके पुत्रों के साथ हुई युद्ध के बारे में बताने के लिए आगे बढ़ने की कोशिश की थी। गणेश जी रास्ता रोककर आगे न बढ़ने के लिए बार- बार समझाया किन्तु परशुराम जी कुछ भी सुनने के लिए तैयार नहीं थे।।
दोनों के बीच जब कहासुनी बढ़कर आपस में मुठभेड़ होने की नौबत आ गयी, तब आवाज सुनकर कार्तिकेय जी वहां आये और दोनों को अलग- अलग कर ऐसी मुठभेड़ का कारण जानने के लिए प्रयास किया था। किन्तु परशुराम जी का क्रोध इतना बढ़ गया कि वे परशु लेकर गणेशजी पर वार करने के लिए टूट पड़े और गणेश जी ने उन्हें अपने हाथों से पकड़ लिया था। फिर परशुराम जी को घुमाकर ब्रह्माण्ड का चक्कर लगवाया था। इसीसे परशुराम जी त्रस्त होकर आगबबूला हो गए और गणेश जी उन्हें पूर्व स्थान में खड़े होकर प्रतीक्षा करने के लिए मजबूर कर किया था।।
इसी कांड से अपमानित परशुराम जी का क्रोध और भी बढ़ गया था और उन्होंने बालक गणेशजी पर दिव्य परशु से प्रहार कर दिया। ऐसे प्रहार के कुछ क्षण पहले ही गणेश जी ने पिता महादेव जी के इस दिव्य परशु को पहचान लिया था। इसीलिए पिता जी के सम्मान को अटूट रखने के लिए परशु का अमोघ बार अपने बाएं दांत पर ले लिया था। इसीसे भयंकर आवाज के साथ गणेश जी के बांया दांत टूटकर धरती पर गिरा तो सम्पूर्ण धरातल में कम्पकम्पी उत्पन्न हुई और देवता गण भी घबरा गए थे। वहां कोलाहल मच गया था और कार्तिकेय जी भी रोने लगे थे।
ऐसी अघटन के कारण, शिवजी और पार्वती जी ने बाहर निकल कर देखा कि गणेशजी के दोनों दांतों में से एक ही दांत बचा था और मुंह थोड़ा सा टेढ़ा हो गया था। माता जी को कार्तिकेय जी ने ऐसी अनहोनी के बारे में सब कुछ बता दिया तो क्रोध जर्जरित पार्वती जी ने शिव जी को परशुराम की ऐसी धृष्टता के लिए शिकायत की थी कि शिष्य परशुराम ने गणेशजी के दांत को गिरा कर गुरु दक्षिणा देने का ये कैसा तरीका है? इसीके बाद क्षुब्ध पार्वती जी अपने दोनों पुत्रों को साथ लेकर वंहा से पित्रालय को चले जाने की बात कही थी। ऐसी संगीन स्थिति से उद्धार पाने के लिए असहाय शिव जी ने कृष्ण जी को स्मरण किया था। कृष्ण जी वहां तुरन्त आ गए थे और पार्वती जी भी अपनी गुस्से को रोककर भव्य स्वागत में लग गए थे।
जब परिस्थिति एक दम शांत पड़ गयी, तब पार्वती जी ने कृष्ण जी को गणेशजी के साथ हादसे के बारे में पहल करने से पहले दोनों पुत्रों से परिचय कराई थी। इस अवसर में कृष्ण जी बोल पड़े थे कि, कार्तिकेय जी और गणेशजी के बारे में त्रिभुवन को मालूम है। एक बार गणेशजी का मस्तक कट जाने से धड़ पर हाथी के सिर को जोड़ा गया था और वे ‘गजानन‘ कहलाए। जब से चतुर्थी के चन्द्रमा को अपने ढ़ाल में धारण किया था, तब से वे ‘ढालचंद्र’ कहलाए। आज दिव्य परशु के वार से गणेशजी का एक दांत टूटने के साथ चेहरा भी थोड़ा टेढ़ा हो गया है। इसीलिए अब से त्रिभुवन में उनको ‘एकदन्ती‘ और ‘वक्रतुंड‘ के नाम से जाना जाएगा। गणेशजी ‘सिद्धिदाता‘ के नाम से तो प्रसिद्ध होंगे; वरदान के रूप में आज से देवताओं से पहले ही गणनाथ जी को सर्वत्र ‘अग्रपूज्य‘ रूप से पूजा जाएगा। भक्तों का संकट को मोचन करने के कारण उनको ‘संकट मोचन‘ गणेशजी भी कहा जायेगा। कृष्णजी के ऐसे वरदान ने सभी को प्रभावित किया था। मां पार्वती जी भी खुश हो गए थे।।
एक पक्ष को सन्तुष्ट करने के बाद भगवान श्री कृष्ण जी ने अपर पक्ष परशुराम जी को बोले कि जो होना था तो हो गया, अब आश्रम में पितृसेवा करने के बाद बचे हुए समय को तपस्या में विनियोग कर सिद्ध बन जाना जरूरी है। वर प्राप्त होकर परशुराम जी सन्तुष्ट हो गए थे। अब माहौल शांत पड़ गया था। शिव जी और पार्वती जी को प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद लेने के बाद सभी आगन्तुक वंहा से अपने- अपने राह में चल पड़े थे।।
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जय श्रीराम
ये सब शास्त्रों में लिखी दंत कथाएं है, पहली बात शिव योगी थे, वे भला अपने पुत्र का सिर क्यों काटेंगे और अगर काटकर जोड़ने की कला जानते है तो उसके लिए हाथी के बच्चे का सिर लेकर, उसकी हत्या क्यों करेंगे। गणेश जी का मूल सिर ही जोड़ देंगे।
गणेश जी को चित्रकारों ने प्रथम पूजनीय देवता के गुण दिखाए है। हाथी की सूंघने की शक्ति दिव्य होती, छोटी आंखे अर्थात दुनिया की तरफ कम देखना और अंतर्मुखी अधिक। मोटा पेट अर्थात समाने की शक्ति, मोदक अर्थात मीठा बोलना और मीठा प्रसाद देना। चूहे की सवारी अर्थात मन की चंचलता को पाश द्वारा वश में करना। इन दिव्य गुणों के कारण देवताओं की सेना के सेनापति बने, स्थूल रूप से वो युद्ध के लिए अनफिट थे। इन गुणों को यदि मनुष्य धारण करते है तो उन्हें भी रिद्धि सिद्धि प्राप्त होती है
श्री गणेशाय नमः