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रहस्यमय गुरु

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रहस्यमय गुरु
मोहन की वर्कशॉप में रखीं अधूरी मूर्तियाँ उसके सपनों की तरह धूल खा रही थीं। वह एक मूर्तिकार था, लेकिन उसकी कला में कोई जान नहीं थी। बाज़ार में उसकी मूर्तियों को कोई देखता तक नहीं था। लोग कहते, “तुम्हारी मूर्तियों में केवल लकड़ी है, कोई आत्मा नहीं है ।” धीरे-धीरे मोहन की हिम्मत पूरी तरह टूटती गई। एक दिन, उसने अपनी छेनी और हथौड़ा एक कपड़े में लपेटा और उसे बक्से में बंद कर दिया, यह सोचकर कि अब वह कभी मूर्ति नहीं बनाएगा।
निराश होकर, वह शहर के पुराने हिस्से में बने एक सुनसान गलियारे में भटक रहा था। तभी उसकी नज़र एक छोटी सी लकड़ी के काम की दुकान पर पड़ी। दुकान का शटर आधा गिरा हुआ था और अंदर एक बूढ़ा आदमी बैठा था। उसकी आँखों पर काले, मोटे चश्मे थे, जिससे लग रहा था कि वह पूरी तरह देख नहीं सकता। लेकिन उसके हाथ बड़ी फुर्ती से काम कर रहे थे। वह अपनी उँगलियों से लकड़ी को छूता और फिर एक विशेष लय में छेनी चलाता। मोहन ने देखा कि हर वार बिल्कुल सही जगह पड़ रहा था और लकड़ी के अंदर से एक बेहद ख़ूबसूरत चेहरा बाहर आ रहा था।
मोहन ने हिम्मत करके पूछा, “बाबाजी, आप तो… आप तो देख नहीं सकते, फिर भी इतनी सुंदर मूर्ति कैसे बना रहे हैं?”
बूढ़े आदमी ने अपनी गर्दन उठाई और मोहन की आँखों में देखा। उसके मोटे चश्मों के पीछे से भी एक तीखी और गहरी चमक मोहन को महसूस हुई। बूढ़े आदमी ने धीमी, पर दृढ़ आवाज़ में कहा, “बेटा, मैंने कभी नहीं कहा कि मैं नहीं देख सकता। मैं वह देखता हूँ जो तुम नहीं देख पाते – लकड़ी के अंदर छुपी हुई आत्मा। तुम अपनी आँखों पर बहुत भरोसा करते हो, इसीलिए तुम्हारी कला अधूरी है।”
बूढ़े आदमी की बात ने मोहन को अंदर तक झकझोर दिया। उसने आगे बढ़कर पूछा, “क्या मैं भी एक अच्छा मूर्तिकार बन पाऊँगा?”…..
बूढ़े आदमी ने अपनी हथेली पर एक साधारण सा लकड़ी का टुकड़ा रखा और मोहन को देते हुए कहा, “यह एक लकड़ी का टुकड़ा है। इसे लेकर जाओ और जब तक तुम इसके अंदर की आत्मा को महसूस न कर लो, तब तक इसे तराशना मत। जब तुम इसे पूरा कर लो, तो वापस मेरे पास आना।” मोहन ने उस लकड़ी के टुकड़े को लिया, पर जब उसने पलट कर देखा, तो वह बूढ़ा आदमी दुकान में नहीं था। ऐसा लगा जैसे वह सिर्फ़ कुछ पल के लिए वहाँ आया था।
मोहन घर लौटा, उस लकड़ी के टुकड़े को लेकर। वह रात भर उसे महसूस करता रहा। अगली सुबह उसने अपनी आँखें बंद कीं और सिर्फ अपने हाथों से उस लकड़ी को छूकर उसके अंदर की भावना को समझने की कोशिश की। अचानक, उसके हाथों को एक दिशा मिली, और उसने छेनी उठाई। इस बार उसके हाथ अपने आप चलने लगे। वह सिर्फ़ एक मूर्ति नहीं बना रहा था, बल्कि अपनी भावनाओं को आकार दे रहा था। कुछ दिनों में उसने एक ऐसी मूर्ति बनाई, जिसमें अद्भुत चमक और जीवंतता थी।
मोहन ने अपनी सफलताओं का जश्न नहीं मनाया। उसे बस उस बूढ़े आदमी से मिलना था। वह अपनी बनाई हुई मूर्ति लेकर उसी सुनसान गलियारे में गया। दुकान अब बंद थी, लेकिन बगल की दुकान के मालिक ने उसे पहचान लिया। “अरे! तुम वही हो ना, जो गुरुजी से मिलने आए थे?”
मोहन ने पूछा, “गुरुजी? वह कहाँ हैं?”
दुकानदार ने मुस्कुराते हुए कहा, “वह कोई बूढ़े बाबा नहीं, शहर के सबसे महान मूर्तिकार, गुरुदेव थे। उन्होंने सालों पहले काम छोड़ दिया था। वह यहाँ कभी-कभी आते थे, किसी ऐसे शिष्य की तलाश में, जिसमें हुनर तो हो, लेकिन आत्म-विश्वास न हो।”
दुकानदार ने बताया कि गुरुदेव ने अपनी आँखों पर काले चश्मे इसलिए लगाए थे, ताकि लोग उनकी कला को न देखकर उनके सिखाए गए सबक पर ध्यान दें। उन्होंने मोहन को यह सिखाया कि सच्चा कलाकार अपनी कला को अपनी आँखों से नहीं, बल्कि अपने दिल से बनाता है। गुरुदेव ने मोहन को यह भी बताया था कि वह उनके द्वारा बनाए गए आखरी शिष्य हैं और यह लकड़ी का टुकड़ा उन्होंने ख़ास तौर पर मोहन के लिए रखा था। मोहन को एहसास हुआ कि वह रहस्यमयी बूढ़ा आदमी कोई जादुई शख्सियत नहीं, बल्कि एक सच्चा गुरु था, जिसने अपनी पहचान छुपाकर उसे एक अमूल्य सबक सिखाया था।
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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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