इच्छा, सद्भावना और ईश्वर की इच्छा
सच्चा चरित्र तब सामने आता है जब इंसान सब कुछ खो देता है। यह बात मुझे एक सच्ची घटना से समझ में आई, जो उत्तर भारत के एक छोटे से शहर में रहने वाले एक साधारण परिवार के साथ हुई थी।
7 नवम्बर 1999 को, उस परिवार का किराए का मकान आग में जलकर राख हो गया। उस दिन लगभग 50 घर और दुकानें इस भयंकर आग की चपेट में आ गए थे। उनके पास बीमा नहीं था, बैंक खाता लगभग खाली था और वे सिर्फ वही कपड़े पहन कर बाहर निकले जो उस समय उनके शरीर पर थे।
उस घर की माँ को सबसे ज्यादा दुःख उस दहेज के सामान के खोने का था, जिसे उन्होंने अपनी बेटी की शादी के लिए धीरे-धीरे जोड़ा था। उनका सपना कोई भव्य विवाह नहीं था, लेकिन एक सादगीपूर्ण, सम्मानजनक आयोजन ज़रूर था — जो अब राख बन चुका था।
वह परिवार कभी अमीर नहीं रहा। आर्थिक रूप से वे सामान्य ही थे, लेकिन हमेशा दूसरों की मदद करते थे। और इसीलिए समाज में कुछ लोग थे जो उन्हें उनके चरित्र के कारण सम्मान देते थे — भारत में जहां अमूमन धन ही सम्मान की कसौटी बन जाता है।
समस्याओं के निराकरण की चिंता पर सबाल करने वालों के के सबाल पर पिता ने सिर्फ कंधे उचका दिए और कहा, “मैं पहले भी ज़ीरो से तीन बार शुरू कर चुका हूँ। जीवन में सिर्फ तीन चीजें चाहिए होती हैं — इच्छा (Will), सद्भावना (Goodwill) और **ईश्वर की इच्छा (God’s will)।”
लेकिन इससे पहले कि वे कुछ और करें, वे सीधे गुरुद्वारे गए और भगवान का धन्यवाद किया — कि जानें नहीं गईं, परिवार सुरक्षित था, और उन्हें दोबारा जीवन शुरू करने का एक और मौका मिला।
उनका यह सरल विश्वास, कठिन समय में भी धन्यवाद करने का भाव, पूरे परिवार को हिम्मत और संबल दे गया।
अगले ही दिन पिता ने फिर से काम शुरू किया। अपने साथियों से उधार मांगा, हालात बताए — और उन्हें मदद मिली। व्यापार अचानक नहीं फूला, लेकिन रुका भी नहीं।
माँ स्कूल गईं — जैसे ही स्कूल खुला। वह मांगे हुए कपड़ों में थीं, थोड़ा बिखरी हुई सी, लेकिन क्लास लीं। बच्चों को उस दिन सबसे बड़ी शिक्षा मिली — जीवन कैसे जिया जाता है, कठिनाइयों से कैसे लड़ा जाता है, और सम्मानजनक ढंग से कैसे खड़ा रहा जाता है।
जब प्रिंसिपल ने उन्हें कुछ दिन की छुट्टी लेने को कहा, तो उन्होंने मना कर दिया — क्योंकि पैसों की ज़रूरत थी। उन्होंने निवेदन किया कि जिन बच्चों के घर जले हैं, उनके लिए फीस माफ की जाए, और उन्हें किताबें व यूनिफॉर्म दिलाई जाएं। प्रिंसिपल मान गए, और एक फंडरेज़िंग अभियान शुरू किया गया। समाज से सहयोग उमड़ पड़ा।
कुछ महीनों बाद, बेटी की शादी हुई — बिल्कुल वैसे ही जैसे माँ चाहती थीं। इसमें लगभग सारा पैसा खर्च हो गया, लेकिन उन्हें कोई पछतावा नहीं था।
आज भी वो परिवार उसी छोटे शहर में किराए के मकान में रहता है, पहले की तरह अमीर नहीं है, लेकिन अब बहुत से लोग उन्हें पहले से कहीं ज़्यादा सम्मान की नजर से देखते हैं।
उनका जीवन हमें एक अनमोल सीख देता है —”हीरा हमेशा कोयले की खान में छिपा होता है, लेकिन उसकी चमक तभी बाहर आती है जब उस पर एक ज़ोरदार चोट पड़ती है।” मुसीबतें हमारे जीवन की परीक्षा ही नहीं हैं — वे हमारे चरित्र का आईना भी हैं। और इस परिवार ने दिखा दिया कि जब इच्छा, सद्भावना और ईश्वर की कृपा साथ हो — तो कुछ भी असंभव नहीं है।
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जय श्रीराम