वाल्मीकि रामायण -भाग 54
द्विविद ने एक बड़ा पर्वत उठाकर कुम्भकर्ण की ओर फेंका। वह उस राक्षस तक नहीं पहुँचा, किन्तु उसकी सेना पर जाकर गिरा और उसने अनेक घोड़ों, हाथियों व राक्षसों को कुचल डाला। इससे कुपित होकर राक्षस-सेना के रथियों ने भी अपने भयंकर बाणों से वानरों को मारना आरंभ कर दिया।
उधर हनुमान जी आकाश में उड़कर कुम्भकर्ण के सिर पर शिलाओं और वृक्षों की वर्षा करने लगे। परन्तु उसने अपने शूल से उन सबको काट डाला। फिर वह वानर सेना पर आक्रमण करने लगा। इससे कुपित होकर हनुमान जी ने कुम्भकर्ण पर बहुत वेग से प्रहार किया। उनकी मार से वह व्याकुल हो उठा। उसका सारा शरीर रक्त से नहा गया। फिर भी उसने अपने शूल को तेजी से घुमाकर हनुमान जी की छाती पर वार कर दिया। इस चोट से हनुमान जी व्याकुल हो गए और रक्त वमन करने लगे। अपनी पीड़ा के कारण उन्होंने भयंकर आर्तनाद किया और उन्हें पीड़ित देखकर राक्षसों के हर्ष की सीमा न रही। भयभीत वानर फिर एक बार युद्ध छोड़कर भागने लगे।
तब वानरों का उत्साह बढ़ाने के लिए नील ने कुम्भकर्ण पर एक पर्वत शिखर फेंका। उसे कुम्भकर्ण ने अपने मुक्के से चूर-चूर कर डाला। इसके बाद ऋषभ, शरभ, नील, गवाक्ष और गन्धमादन पाँचों मिलकर कुम्भकर्ण पर टूट पड़े। उसे चारों ओर से घेरकर वे पर्वतों, वृक्षों, थप्पड़ों और लात-घूँसों से उसे मारने लगे। उनके भीषण से भीषण प्रहार भी कुम्भकर्ण के लिए इतने हल्के थे, मानो कोई उसे छू भर रहा हो। उसे इनसे कोई पीड़ा नहीं हुई।
तभी सहसा उसने महावेगशाली वानर ऋषभ को अपनी दोनों भुजाओं में जकड़ लिया। इससे दबकर पीड़ित ऋषभ अपने मुँह से खून उगलने लगा और पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर कुम्भकर्ण ने शरभ को मुक्के से मारा, नील को घुटने से रगड़ दिया और गवाक्ष को थप्पड़ से गिरा दिया। गन्धमादन को भी उसने बड़े क्रोध से लात मार दी। वे सब वानर उसके प्रहारों से व्यथित हो गए एवं रक्त से नहा उठे। मूर्छित होकर वे सब भूमि पर गिर पड़े।
यह देखकर हजारों क्रोधित वानर एक साथ कुम्भकर्ण पर टूट पड़े। वे सब उछल-उछलकर उसके शरीर पर चढ़ गए और अपने नखों, दाँतों, मुक्कों और हाथों से उसे मारने लगे। लेकिन इससे भी विचलित हुए बिना वह उन सबको पकड़-पकड़कर खाने लगा। अनेक वानरों को उसने घायल कर डाला और उन्हें कुचलता हुआ युद्धभूमि में इधर-उधर टहलने लगा।
उसके पराक्रम से भयभीत होकर वानर अब श्रीराम की शरण में भागे। उन्हें फिर भागता देखकर अब अंगद ने एक विशाल पर्वत-शिखर अपने हाथों में उठा लिया और कुम्भकर्ण के माथे पर दे मारा। उसकी चोट से कुम्भकर्ण का क्रोध और भी बढ़ गया व उस प्रहार को सहन न कर पाने के कारण वह कुपित होकर अंगद की ओर दौड़ा।
बड़े जोर से ललकारते हुए उसने अंगद पर अपने शूल से प्रहार किया, लेकिन चपल अंगद ने फुर्ती से एक ओर हटकर स्वयं को बचा लिया। साथ ही बड़े वेग से उछलकर अंगद ने उस निशाचर की छाती पर एक थप्पड़ मार दिया। उस प्रहार से घायल होकर कुम्भकर्ण अचेत हो गया व भूमि पर गिर पड़ा। थोड़ी देर में होश आने पर उसने भी बायें हाथ के मुक्के से अंगद पर प्रहार करके उसे बेहोश कर दिया।
अंगद के अचेत हो जाने पर कुम्भकर्ण अब अपना शूल उठाकर सुग्रीव की ओर दौड़ा। तब सुग्रीव ने एक पर्वत शिखर उठा लिया और उसे घुमाकर कुम्भकर्ण पर धावा बोल दिया। उसके प्रहार से कुम्भकर्ण की छाती पर गहरी चोट लगी, किन्तु उस राक्षस से टकराकर वह शिखर भी चूर-चूर हो गया।
अब कुम्भकर्ण ने सुग्रीव को मारने के लिए अपना पैना शूल घुमाकर सुग्रीव की ओर बड़े वेग से फेंका। उसके हाथ से फेंके गए उस भयंकर शूल को हनुमान जी ने उछलकर हवा में ही पकड़ लिया और अपने घुटनों में लगाकर एक ही क्षण में तोड़ डाला। यह देखकर वानर हर्ष से चिल्लाने लगे और राक्षस भय से थर्रा उठे।
अपने शूल को इस प्रकार टूटा हुआ देखकर कुम्भकर्ण को बड़ा क्रोध आया। उसने मलय पर्वत का एक शिखर उठाकर सुग्रीव पर दे मारा। उससे आहत होकर सुग्रीव की सुध-बुध खो गई और वह अचेत हो गया। यह देखकर सब निशाचर बड़े प्रसन्न हुए और युद्धभूमि में गर्जना करने लगे।
कुम्भकर्ण ने मूर्च्छित सुग्रीव को उठा लिया और वह लंका की ओर लौट गया। युद्ध-स्थल में सभी राक्षस उसकी स्तुति कर रहे थे। जैसे ही उसने लंका में प्रवेश किया, तो सारे लंकावासी अपने-अपने घरों की छत से फूलों की वर्षा करते हुए उसकी जयजयकार करने लगे। उनके द्वारा कुम्भकर्ण पर छिड़के गए चन्दनयुक्त जल की शीतलता के कारण सुग्रीव को भी धीरे-धीरे होश आ गया। कुम्भकर्ण की भुजाओं में दबे सुग्रीव ने होश में आते ही सहसा अपने हाथ के तीखे नखों से कुम्भकर्ण के दोनों कान नोच दिए, दाँतों से उसकी नाक काट ली और पैर के नखों से उसकी पसलियाँ फाड़ डालीं।
इस प्रकार विदीर्ण हो जाने से कुम्भकर्ण का सारा शरीर लहूलुहान हो गया और क्रोधित होकर उस राक्षस ने सुग्रीव को घुमाकर भूमि पर पटक दिया। फिर वह सुग्रीव को जमीन पर रगड़ने लगा और सब राक्षस चारों ओर से सुग्रीव को मारने लगे। तभी अचानक सुग्रीव ने गेंद के समान उछलकर फुर्ती से छलांग लगाई और वह आकाश-मार्ग से श्रीराम के पास लौट आया।
अपनी नाक-कान से बहती रक्त की धाराओं के कारण अब महाकाय कुम्भकर्ण और भी भयानक दिखाई दे रहा था। सुग्रीव के निकल भागने पर अपमानित होकर वह भी पुनः युद्ध-भूमि की ओर दौड़ पड़ा। अब उसके हाथ में कोई हथियार नहीं था, अतः उसने एक बहुत बड़ा मुद्गर उठा लिया।
इतनी देर के युद्ध से वह बहुत अधिक थक गया था और उसे भूख सताने लगी थी। भीषण भूख के कारण उसने युद्धभूमि में पहुँचने पर वानरों और भालुओं के साथ ही राक्षसों व पिशाचों को भी खाना आरम्भ कर दिया। जो भी सामने आ जाए, उसी को पकड़कर वह खाने लगा। इससे भयभीत होकर सब वानर फिर अपनी रक्षा के लिए श्रीराम की शरण में भागे।
तब लक्ष्मण ने आगे बढ़कर कुम्भकर्ण के शरीर में सात बाण मार दिए। कुम्भकर्ण ने उन सबको निष्फल कर दिया। अब क्रोधित होकर लक्ष्मण ने कुम्भकर्ण के पूरे कवच को ही बाणों से ढक दिया। तब उनका तिरस्कार करते हुए कुम्भकर्ण बोला, “लक्ष्मण! मैं युद्ध में यमराज को भी परास्त कर सकता हूँ। तुम तो मेरे सामने एक बालक के समान हो। फिर भी तुमने जिस प्रकार निर्भय होकर युद्ध किया, तुम्हारा यह पराक्रम देखकर मैं बहुत संतुष्ट हूँ। अब मुझे तुम राम के पास जाने दो। मैं केवल राम को मारना चाहता हूँ क्योंकि उसके बाद सारी वानर-सेना वैसे ही पराजय को मान लेगी।”
यह सुनकर लक्ष्मण ने हँसते हुए कहा, “कुम्भकर्ण! तेरा पराक्रम तो मैंने देख ही लिया। वे रहे दशरथनन्दन श्रीराम, जो पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हैं। जा, उन्हें भी अपना पराक्रम दिखाकर तू अपनी यह इच्छा भी पूरी कर ले।”
तब लक्ष्मण की उपेक्षा करता हुआ कुम्भकर्ण आगे बढ़ गया। उसे आते देख श्रीराम ने रौद्रास्त्र का प्रयोग करके उसके हृदय में अनेक पैने बाण मारे। उनसे घायल होकर कुम्भकर्ण क्रोध से गर्जना करता हुआ श्रीराम की ओर दौड़ा। श्रीराम के बाणों में मोर पंख लगे हुए थे, जो कुम्भकर्ण की छाती में धँस गए। इससे व्याकुलता के कारण उसके हाथों से मुद्गर भी छूटकर गिर गया। कोई हथियार न होने पर अब उसने एक भयंकर पर्वत शिखर उठाया और उसी को घुमाकर श्रीराम पर चला दिया। परन्तु श्रीराम ने अपने धनुष से सात बाण मारकर बहुत दूर से ही उस पर्वत के टुकड़े कर डाले। इससे कुम्भकर्ण का क्रोध और बढ़ गया।
अब श्रीराम ने कुम्भकर्ण पर अपना आक्रमण और तेज कर दिया। उन्होंने वायव्यास्त्र का संधान करके उसे कुम्भकर्ण पर चलाया और उसकी दाहिनी भुजा काट डाली। फिर उन्होंने एक बाण को ऐन्द्रास्त्र से अभिमन्त्रित किया और उससे कुम्भकर्ण की दूसरी भुजा भी काट डाली। अब वह राक्षस आर्तनाद करता हुआ श्रीराम की ओर दौड़ पड़ा। यह देखकर श्रीराम ने दो अर्धचन्द्राकार बाण चलाए और उसके दोनों पैर भी काट दिए।
दोनों हाथ-पैर कट जाने पर भी वह राक्षस अपने विकराल मुँह को फैलाकर श्रीराम को ग्रसने के प्रयास में लग गया। तब श्रीराम ने अपने तीखे बाणों से उसका मुँह भर दिया। इतने आक्रमणों से आहत होकर अंततः वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ा।
अब श्रीराम ने काल के समान तीखा, सूर्य के समान चमकीला, इन्द्रास्त्र से अभिमन्त्रित एक स्वर्णभूषित बाण अपने हाथ में लिया और उस निशाचर की ओर लक्ष्य करके छोड़ दिया। वज्र के समान भयंकर वेग वाले उस शक्तिशाली बाण ने कुम्भकर्ण के सिर को ही धड़ से अलग कर दिया। वह कटा हुआ सिर उस बाण के वेग से लंका में जाकर गिरा। उसके धक्के से अनेक मकान धराशायी हो गए। कुम्भकर्ण का धड़ भी जाकर समुद्र के जल में गिर पड़ा और सागर में रहने वाले जीवों को कुचलता हुआ समुद्र तल में समा गया।
इस भयानक राक्षस का नाश हो जाने से वानरों को बड़ी प्रसन्नता हुई और वे हर्षित होकर नाचने लगे। जो बड़े-बड़े युद्धों में भी कभी पराजित नहीं हुआ था, उस कुम्भकर्ण की मृत्यु देखकर रावण के सैनिकों में भय फैल गया और वे घबराकर जोर-जोर से रोने-कलपने लगे
कुम्भकर्ण के मारे जाने पर बचे-खुचे राक्षस युद्धभूमि से भाग खड़े हुए। रावण के पास पहुँचकर उन्होंने कुम्भकर्ण के वध का समाचार सुनाया। ‘कुम्भकर्ण युद्धभूमि में मारा गया’, यह सुनते ही रावण शोक-संतप्त होकर भूमि पर गिर पड़ा और मूर्च्छित हो गया। अपने चाचा के निधन की वार्ता सुनकर देवान्तक, नरान्तक, त्रिशिरा और अतिकाय भी दुःख से पीड़ित हो फूट-फूटकर रोने लगे। कुम्भकर्ण के सौतेले भाई महोदर और महापार्श्व पर शोक से व्याकुल हो गए।
बहुत समय बाद रावण को होश आया। तब दुःखी होकर वह पुनः विलाप करने लगा, “हा भाई! हा वीर कुम्भकर्ण! तुम तो शत्रुओं के काल थे, पर दुर्भाग्यवश अब तुम ही मुझे असहाय छोड़कर चले गए। तुम जैसा पराक्रमी वीर उस राम के हाथों कैसे मारा गया? तुम्हारे ही भरोसे मैं देवता या असुर किसी से नहीं डरता था। आज तुम्हारे जाने से मैं असहाय हो गया।”
“अब मुझे राज्य से कोई प्रयोजन नहीं है। मुझे अब सीता भी नहीं चाहिए। कुम्भकर्ण के साथ ही मेरी जीने की इच्छा भी मर गई है। अब यह निरर्थक जीवन मेरे किसी काम का नहीं है। मैं भी अब उसी यमलोक को जाऊँगा, जहाँ मेरा छोटा भाई कुम्भकर्ण गया है। मैं अपने भाइयों के बिना जीवित नहीं रह सकता। अपने अज्ञान के कारण मैंने धर्मपरायण विभीषण की हितकर बातों पर ध्यान नहीं दिया। उसी का यह फल मुझे आज मिला है।”
इस प्रकार विलाप करता हुआ रावण व्यथित होकर पुनः धरती पर गिर पड़ा।
तब त्रिशिरा ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “राजन! इसमें संदेह नहीं कि हमारे महापराक्रमी चाचा आज युद्ध में मारे गए हैं, किन्तु आप जिस प्रकार शोक कर रहे हैं, वह भी श्रेष्ठ पुरुषों को शोभा नहीं देता। आप तो अकेले ही तीनों लोकों को जीतने में समर्थ हैं। फिर क्यों इस प्रकार साधारण जनों की भाँति आप शोक कर रहे हैं? आपके पास ब्रह्माजी की दी हुई शक्ति, कवच, धनुष तथा बाण हैं, मेघ के समान गर्जना करने वाला विशाल रथ है, जिसमें एक हजार गधे जोते जाते हैं। आपने एक ही शस्त्र से अनेक बार देवताओं और दानवों को परास्त किया है। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होने पर आप राम को भी अवश्य परास्त कर सकते हैं अथवा आप कहें, तो मैं स्वयं युद्ध के लिए जाऊँगा और आपके शत्रुओं का नाश कर दूँगा।”
यह सुनकर रावण का मन थोड़ा शांत हुआ। त्रिशिरा की बात सुनकर देवान्तक, नरान्तक और अतिकाय भी युद्ध के लिए उत्साहित हो गए। वे सब आकाश में विचरण करने वाले, माया को जानने वाले तथा अत्यधिक बलवान राक्षस थे। उनकी कभी पराजय नहीं हुई थी।
रावण ने अपने उन पुत्रों को गले लगाकर अनेक प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया और युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया। साथ ही उनकी रक्षा के लिए उसने महापार्श्व एवं महोदर को भी भेजा। अनेक प्रकार की औषधियों तथा गन्धों को स्पर्श करके त्रिशिरा, अतिकाय, देवान्तक, नरान्तक, महोदर और महापार्श्व युद्ध के लिए तैयार हो गए। रावण को प्रणाम करके उन्होंने उसकी परिक्रमा की और वे युद्ध के लिए निकल पड़े।
उस समय महोदर काले रंग के ‘सुदर्शन’ नामक हाथी पर बैठा हुआ था। हाथी की पीठ पर सब प्रकार के आयुध और तूणीर भी रखे हुए थे। त्रिशिरा व अतिकाय भी अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों के साथ उत्तम घोड़ों वाले अपने रथों पर आरूढ़ हो गए। नरान्तक एक विशालकाय एवं तीव्रगामी स्वर्णभूषित अश्व पर बैठा। देवान्तक व महापार्श्व अपने-अपने हाथों में क्रमशः परिघ व गदा लेकर पैदल ही युद्धभूमि की ओर निकले। उन सबके पीछे-पीछे हाथी, घोड़ों और रथों पर आरूढ़ होकर अनेक विशालकाय राक्षस भी अपने-अपने आयुध लेकर चल पड़े।
आगे बढ़ने पर उन्होंने देखा कि नगर की सीमा के बाहर वानर-सेना बड़े-बड़े वृक्ष और शिलाएँ लेकर युद्ध के लिए तैयार खड़ी है। वानरों ने भी देखा कि हाथी-घोड़ों से भरी हुई राक्षसों की सेना बड़े-बड़े आयुध लेकर चली आ रही है। एक-दूसरे को देखते ही दोनों सेनाएँ युद्ध के लिए भयंकर गर्जना करने लगीं और उन्होंने एक-दूसरे पर आक्रमण कर दिया।
दोनों पक्षों के अनेक योद्धा एक-दूसरे के प्रहारों से मारे गए। जब वानरों का पलड़ा भारी होने लगा, तो सहसा नरान्तक अपने घोड़े पर तीव्र वेग से दौड़ता हुआ वानर-सेना के बीच घुस गया व अपने चमचमाते हुए भाले से उसने अकेले ही सात सौ वानरों को मार डाला। वह इतनी तेजी से प्रहार करता था कि वानरों को कुछ समझने या बचने का अवसर ही नहीं मिल रहा था।
यह देखकर सुग्रीव ने उसे मारने के लिए अंगद को भेजा। अंगद को देखकर नरान्तक ने अपना भाला पूरे वेग से उसकी छाती पर फेंककर मारा। लेकिन अंगद के वज्र समान कठोर सीने से टकराकर वह भाला ही टूटकर गिर गया। तब अंगद ने बड़े जोर से नरान्तक के घोड़े पर थप्पड़ से प्रहार किया। उस भीषण प्रहार से घोड़े का सिर फट गया, पैर नीचे धँस गए, आँखें फूट गईं और जीभ बाहर निकल आई। उस अश्व के प्राण-पखेरू उड़ गए।
अपने घोड़े को मरा हुआ देखकर नरान्तक के क्रोध की सीमा न रही। एक ही मुक्के में उसने अंगद का सिर फोड़ डाला। अंगद के माथे से गर्म रक्त की धार बहने लगी और इस भीषण प्रहार से वह मूर्च्छित हो गया। कुछ समय बाद होश में आने पर अंगद ने नरान्तक के सीने पर एक जोरदार मुक्का जड़ दिया। उसके आघात से नरान्तक का हृदय फट गया और उसके प्राण निकल गए। एक ही क्षण में वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। यह देखकर सब राक्षस हाहाकार कर उठे।
अब महोदर, देवान्तक और त्रिशिरा तीनों ने एक साथ अंगद पर आक्रमण कर दिया। अंगद ने भी एक विशाल वृक्ष उखाड़कर सहसा देवान्तक पर दे मारा। लेकिन त्रिशिरा ने अपने भयंकर बाण से उस वृक्ष के टुकड़े कर डाले। अब त्रिशिरा, महोदर और देवान्तक तीनों अंगद पर टूट पड़े।
उनके प्रहारों से क्रोधित होकर अंगद ने महोदर के हाथी पर आक्रमण कर दिया और एक ही थप्पड़ में उसके प्राण निकाल दिए। उस भीषण प्रहार से हाथी की दोनों आँखें पृथ्वी पर गिर पड़ीं और वह तत्काल मर गया। फिर अंगद ने उसका एक दाँत उखाड़ लिया और तेजी से दौड़कर देवान्तक पर उसी दाँत से प्रहार किया। उस हमले की मार से देवान्तक व्याकुल होकर काँपने लगा और उसके शरीर से महावर के समान लाल रंग का रक्त बहने लगा। फिर भी उसने किसी प्रकार स्वयं को संभाला और अपना परिघ उठाकर अंगद पर दे मारा। उसके प्रहार से अंगद ने घुटने टेक दिए। अगले ही क्षण अंगद आकाश में उछला, पर उसी समय त्रिशिरा ने अपने तीन भयंकर बाणों से अंगद के माथे को गहरी चोट पहुँचाई।
अंगद को इस प्रकार तीन निशाचरों से घिरा हुआ देखकर हनुमान जी और नील उसकी सहायता के लिए आगे बढ़े। नील ने त्रिशिरा पर एक पर्वत शिखर फेंका, पर त्रिशिरा ने अपने पैने बाणों से उसे चूर-चूर कर दिया।
अपने भाई का पराक्रम देखकर देवान्तक को बड़ा हर्ष हुआ और उसने परिघ लेकर हनुमान जी पर धावा बोल दिया। तब हनुमान जी ने एक ही घूँसे में उसका सिर फोड़ डाला। उसका मस्तक फट गया, दाँत, आँखें और जीभ बाहर निकल आई व एक क्षण में ही उसके प्राण निकल गए।
नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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जय श्री राम
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the authorLalit Tripathi
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