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वाल्मीकि रामायण -भाग 44

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वाल्मीकि रामायण -भाग 44

समुद्र को पार करके हनुमान जी महेन्द्रगिरि पर उतरे। अपने वानर-मित्रों से शीघ्र मिलने की उत्सुकता में उन्होंने बड़े तीव्र स्वर में गर्जना की। उसे सुनते ही जाम्बवान हर्ष से खिल उठे। तुरंत ही उन्होंने सब वानरों को बुलाकर उनसे कहा, “वानरों! निसंदेह हनुमान जी अपना कार्य सिद्ध करके लौटे हैं। तभी वे ऐसी गर्जना कर रहे हैं।”

यह सुनते ही सब वानर प्रसन्नता से झूम उठे और वृक्षों की ऊँची-ऊँची शाखाओं पर चढ़कर हनुमान जी को ढूँढने का प्रयास करने लगे। उतने में ही हनुमान जी भी पर्वत से उतरकर नीचे आ गए। वानरों ने उन्हें देखते ही चारों ओर से घेर लिया। हनुमान जी ने वहाँ आते ही जाम्बवान और अगंद को प्रणाम किया। फिर वे संक्षेप में बोले, “मुझे सीता देवी का दर्शन हो गया।

इतना कहकर वे आराम से बैठ गए। सब वानरों ने पुनः उन्हें घेर लिया। तब हनुमान जी ने विस्तार से बताया कि ‘सीता जी लंका के अशोक वन में निवास करती हैं। अत्यंत भयंकर राक्षसियाँ उनकी रखवाली में नियुक्त हैं। सीता जी बड़ी भोली-भाली हैं। वे सदा श्रीराम के दर्शनों के लिए व्याकुल रहती हैं। अपने कष्टों के कारण वे बहुत थक गई हैं और दुर्बल व मलिन हो गई हैं।

सीता से मिलने का समाचार सुनकर सब वानर हर्षित होकर झूमने लगे। तब अंगद ने हनुमान जी से कहा, “कपिश्रेष्ठ! इतना बल व पराक्रम केवल तुम में ही था, जो तुम इस विशाल सागर को लाँघकर फिर वापस इस पार भी लौट आए। तुम्हारे कारण ही अब हम सब लोगों के प्राण बचेंगे। बड़ी प्रसन्नता की बात है कि तुमने सीता देवी का पता लगा लिया है। अब श्रीराम का शोक भी दूर हो जाएगा।”

तब वे सब वानर आकाश-मार्ग से चले और सुग्रीव के पास आ पहुँचे। वहाँ पहुँचने पर वे सब हनुमान जी को आगे करके उनके पीछे-पीछे चलने लगे।

 श्रीराम को देखते ही हनुमान जी ने उनके चरणों में सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और फिर बोले, “प्रभु! मैंने सीता देवी का दर्शन कर लिया है। उन्हें रावण के अन्तःपुर में रखा गया है। अनेक राक्षसियाँ उन्हें धमकाती रहती हैं, किन्तु फिर भी आपके प्रति उनका अनन्य अनुराग है। अभी तक उन्हें कोई क्षति नहीं पहुँची है। वे कुशल हैं, किन्तु रावण ने उन्हें जीवित रखने के लिए अब केवल दो मास की अवधि दी है।”

इसके बाद श्रीराम के पूछने पर हनुमान जी ने लंका पहुँचने से लेकर वापस लौटने तक की अपनी पूरी यात्रा का विवरण उन्हें बताते हुए कहा, प्रभु! मैं सौ योजन के समुद्र को लाँघकर उस पार पहुँचा। वही रावण की लंका नगरी है। वहाँ मैंने रावण के अन्तःपुर में प्रमदावन के भीतर राक्षसियों से घिरी हुई सीता जी का दर्शन किया। वे केवल आपका ही स्मरण करती हुईं किसी प्रकार वहाँ जी रही हैं। वे नीचे भूमि पर सोती हैं। विकराल रूप वाली राक्षसियाँ उनकी रखवाली करती हैं और बार-बार उन्हें डाँटती-फटकारती रहती हैं। सीताजी का मन केवल आप में ही लगा रहता है। उन्हें रावण से कोई प्रयोजन नहीं है। उन्होंने दो माह के बाद अपने प्राण त्याग देने का निश्चय कर लिया है।”

श्रीराम! मैंने बड़ा प्रयत्न करके उनका पता लगाया और फिर आपके इक्ष्वाकुवंश की कीर्ति का वर्णन करते हुए किसी प्रकार उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं आपका ही दूत हूँ। इसके बाद मैंने उन्हें यहाँ की सब बातें बताईं और आपका सन्देश सुनाया। चित्रकूट में आपके साथ रहते समय एक कौए को लेकर जो घटना हुई थी, वह वृतांत उन्होंने मुझे प्रमाण के रूप में बताया है। उन्होंने आपको देने के लिए यह चूड़ामणि भी मुझे दी थी।”

ऐसा कहकर हनुमान जी ने सीता जी की वह चूड़ामणि श्रीराम के हाथों में रख दी।

श्रीराम ने उस मणि को देखते ही अपने सीने से लगा लिया और अत्यंत व्याकुल होकर वे रोने लगे। उनका दुःख देखकर भाई लक्ष्मण भी रो पड़े।

श्रीराम कहने लगे, “मित्र सुग्रीव! किसी यज्ञ में राजा जनक को देवराज इन्द्र से यह मणि प्राप्त हुई थी। उन्होंने हमारे विवाह के समय यह सीता को दी थी। आज इसे देखकर ऐसा लग रहा है, मानो मैं सीता को ही देख रहा हूँ। वह तो एक माह तक जीवित रह लेगी, किन्तु मैं तो उसके बिना अब एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता।”

फिर वे हनुमान जी से बोले, “वीर पवनकुमार! तुमने जहाँ सीता को देखा है, वहीं मुझे भी ले चलो। अब मैं एक क्षण भी यहाँ नहीं रुक सकता। घनघोर रूप वाले उन भयंकर राक्षसों के बीच में सीता कैसे रहती होगी! उसने तुमसे क्या-क्या कहा है? मेरे लिए उसने क्या सन्देश दिया है? वह इतने दुःख उठाकर भी किस प्रकार जीवित है? तुम मुझे सब-कुछ बताओ। सीता के बारे में सुनकर ही अब मेरा मन शांत हो सकता है।”

तब हनुमान जी बहुत विस्तार से कहने लगे, “पुरुषोत्तम! जानकी देवी ने पहले चित्रकूट में हुई एक घटना के बारे में मुझे बताया। एक बार आपने कोये के सीताजी के पैर मे चोच मारने पर क्रोधित होकर आपने चटाई में से एक कुश निकाला और उसे ब्रह्मास्त्र से अभिमंत्रित करके उस कौए पर चला दिया। प्रलयकारी अग्नि के समान जलता हुआ वह दर्भ उस कौए का पीछा करने लगा। वह कौआ अपने प्राण बचाने के लिए तीनों लोकों में भागता फिरा, किन्तु आपके भय से किसी देवता ने भी उसको संरक्षण नहीं दिया। सब ओर से निराश होकर अंततः वह आपकी ही शरण में आया। शरणागतवत्सल होने के कारण आपने उसे शरण दे दी। लेकिन ब्रह्मास्त्र भी व्यर्थ नहीं जा सकता था, इसलिए आपने उस कौए की दाहिनी आँख फोड़ डाली।

“यह प्रसंग सुनाने के बाद सीताजी ने मुझसे पूछा था, ‘हनुमान! इतने शक्तिशाली और पराक्रमी होते हुए भी श्रीराम अथवा लक्ष्मण अब मेरी रक्षा क्यों नहीं करते हैं? वे अपने तीखे बाणों से रावण का वध क्यों नहीं करते हैं? उन दोनों को युद्ध में जीतना तो देवताओं के लिए भी असंभव है, फिर वे मेरी इस प्रकार उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? मुझसे ऐसा क्या पाप हुआ है कि वे दोनों समर्थ होते हुए भी मेरी सहायता के लिए नहीं आ रहे हैं?

हनुमान जी ने आगे कहा, “प्रभो! उन्होंने यह भी चिंता व्यक्त की थी कि श्रीराम और लक्ष्मण इतने बड़े समुद्र को लाँघकर सेना-सहित इस पार कैसे आएँगे। तब मैंने उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि ‘देवी! वानरराज सुग्रीव बड़े शक्तिशाली हैं। उनकी सेना में मुझसे भी अधिक पराक्रमी अनेकों वानर हैं, जिन्होंने अनेक बार वायुमार्ग से पृथ्वी की परिक्रमा की है।

आप तो जानती ही होंगी कि साधारण श्रेणी के लोगों को ही दूत बनाकर भेजा जाता है, बहुत श्रेष्ठ लोगों को ऐसे कार्य नहीं दिए जाते। इसी कारण मुझे भेजा गया है। सुग्रीव की सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो किसी भी प्रकार मुझसे कम हो। जब मैं यहाँ तक आ गया हूँ, तो वे सब तो एक ही छलाँग में यहाँ पहुँच जाएँगे, अतः आप शोक न करें। शीघ्र ही आप देखेंगी कि महापराक्रमी श्रीराम और लक्ष्मण हाथ में धनुष लेकर लंका के द्वार तक आ पहुँचेंगे। वनवास की अवधि पूरी होते ही आपको श्रीराम के साथ अयोध्या लौटकर उनके राज्याभिषेक को देखने का सौभाग्य भी प्राप्त होगा।’”

“जब मैंने ऐसी बातें कहीं, तब जानकी जी के पीड़ित मन को कुछ शान्ति मिली तथा उन्होंने मुझे यहाँ वापस लौटने की आज्ञा दी।”

नोट:- वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर वाली में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है। यहां केवल सारांश ही लिखा गया है। जो भी यहां लिखा गया है, वह सारा वाल्मीकि रामायण में दिया हुआ है। जिन्हें आशंका या आपत्ति है, वे कृपया मूल ग्रन्थ को स्वयं पढ़ें।

नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।

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जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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