वाल्मीकि रामायण भाग 22
भरत के पूछने पर कैकेयी ने कहा, “बेटा! राजकुमार राम वल्कल-वस्त्र पहनकर दण्डकवन में चले गए और लक्ष्मण ने भी उन्हीं का अनुसरण किया।” यह सुनकर भरत डर गए कि कहीं श्रीराम ने कोई अपराध तो नहीं किया था। उन्होंने पूछा, “माँ! श्रीराम ने किसी का धन तो नहीं छीन लिया? किसी निष्पाप की हत्या तो नहीं कर दी? उनका मन किसी परायी स्त्री की ओर तो नहीं चला गया? किस अपराध के कारण उन्हें दण्डकारण्य में जाने के लिए निर्वासित किया गया है?” तब कैकेयी ने अपनी करतूत बताई। वह बहुत गर्व से कहने लगी, “बेटा! श्रीराम ने ऐसा कोई भी अपराध नहीं किया है। अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक होने वाला था। तब मैंने तुम्हारे पिता से तुम्हारे लिए राज्य और राम के लिए वनवास माँग लिया। अपने सत्यप्रतिज्ञ स्वभाव के कारण तुम्हारे पिता ने भी मेरी माँग पूरी की। राम, लक्ष्मण और सीता को वन में भेज दिया गया, किन्तु अपने प्रिय पुत्र के वियोग में महाराज ने भी प्राण त्याग दिए।” “बेटा! मैंने सब तुम्हारे लिए ही किया है। अतः अब तुम शोक न करो और निष्कण्टक होकर इस राज्य का शासन चलाओ। महाराज का अन्त्येष्टि संस्कार करके तुम राजपद स्वीकार करो।”
यह सुनकर भरत दुःख से संतप्त होकर कहने लगे, हाय, तूने मुझे मार डाला!!मेरे पिताजी चले गए और मैं अपने पिता समान बड़े भाई से भी बिछड़ गया। अब राज्य लेकर मुझे क्या करना है? पिता के प्राण लेकर तूने मुझे घाव दिया और फिर श्रीराम को वन में भेजकर उस घाव पर नमक भी छिड़क दिया।” “कुलकलङ्किणी! तू इस कुल का विनाश करने के लिए ही आई थी। मेरे यशस्वी पिताजी तेरे कारण ही दिवंगत हो गए, मेरे बड़े भाई श्रीराम को भी तूने ही घर से निकाल दिया और मेरी माताओं कौसल्या व सुमित्रा को भी तेरे कारण ही पुत्रशोक सहना पड़ा। तू नहीं जानती कि श्रीराम के प्रति मेरे मन में कैसा भाव है। तूने राज्य पाने के लालच में अनर्थ कर डाला है।” “जो राजकुमार सबसे बड़ा होता है, उसी का राज्याभिषेक किया जाता है। तूने मुझे ऐसी विपत्ति में डाल दिया है, जो मेरे प्राण भी ले सकती है। मैं तेरी यह इच्छा कभी पूर्ण नहीं करूँगा। मैं वन में जाकर मेरे निष्पाप भाई श्रीराम को पुनः अयोध्या लौटा लाऊँगा और उनका दास बनकर जीवन व्यतीत करूँगा।।
प्रातःकाल वसिष्ठ जी ने भरत को समझाया कि “यह शोक छोड़ो क्योंकि इससे कुछ होने वाला नहीं है। अब तुम राजा दशरथ के शव को दाह-संस्कार के लिए ले चलने का प्रबंध करो।” उनके आदेश पर भरत ने मंत्रियों से कहकर अपने पिता के अंतिम संस्कार का प्रबन्ध करवाया। राजा दशरथ का शव तेल के कड़ाह से निकालकर भूमि पर रखा गया। इतने दिनों तक तेल में पड़े रहने से उनका मुख कुछ पीला पड़ गया था। मृत राजा के शव को धो-पोंछकर अनेक प्रकार के रत्नों से विभूषित शय्या पर रखा गया। अपने पिता को इस प्रकार देखकर भरत अत्यंत दुःख से विलाप करने लगे – “राजन्! मैं परदेश में था और आप तक पहुँच भी न पाया, उससे पहले ही श्रीराम व लक्ष्मण को वन में भेजकर आप स्वर्ग में कैसे चले गए? आपके बिना इस राज्य का पालन अब कौन करेगा?” भरत को विलाप करता देख महर्षि वसिष्ठ ने पुनः कहा, “महाराज के अंतिम–संस्कार के सभी कर्तव्य शान्त मन से पूरे करो। तब राजा की अग्निशाला से अग्नि लाई गई और ऋत्विजों व याजकों ने विधिपूर्वक उससे हवन किया। महाराज के मृत शरीर को पालकी में बिठाकर परिचारक उन्हें श्मशानभूमि की ओर ले गए। उस समय आँसुओं से सबका गला रुंध गया था और चारों ओर शोक फैल गया था। मार्ग में राजकीय पुरुष राजा के शव के आगे-आगे सोने, चाँदी तथा अनेक प्रकार के वस्त्र लुटाते हुए चल रहे थे। श्मशानभूमि में चिता तैयार की जाने लगी। चंदन, अगर, गुग्गुल, सरल, पद्मक और देवदार आदि की लकड़ियाँ लाकर चिता में डाली गईं। कुछ सुगन्धित पदार्थ भी डाले गए। अग्नि में आहुति देकर ऋत्विजों ने वेद-मन्त्रों का जप किया और सामगान करने वाले विद्वान शास्त्रीय पद्धति के अनुसार सामवेद की श्रुतियों का गायन करने लगे। इसके बाद चिता में आग लगाई गई। मंत्रियों व पुरोहितों ने राजा के लिए जलाञ्जलि दी। फिर सब लोग आँसू बहाते हुए नगर में वापस लौटे। दस दिनों तक शोक की अवधि में सबने भूमि पर शयन किया। ग्यारहवें दिन भरत ने आत्मशुद्धि के लिए स्नान किया और एकादशाह श्राद्ध का अनुष्ठान किया। बारहवें दिन उन्होंने अन्य श्राद्ध-कर्म किए। तेरहवें दिन वे अपने पिता के चिता-स्थान पर अस्थि-संचय के लिए गए। चिता का वह स्थान भस्म से भरा हुआ था। दाह के कारण वह कुछ-कुछ लाल दिखाई दे रहा था। पिता की जली हुई हड्डियाँ वहाँ बिखरी हुई थीं। पिता के शरीर का वह निर्वाण-स्थान को देखकर भरत अत्यंत शोकाकुल होकर विलाप करने लगे। भरत का शोक देखकर शत्रुघ्न भी शोक में डूब गए। तब सारे मंत्री उन्हें सांत्वना देने पहुँचे।
वसिष्ठ जी ने भरत को उठाकर समझाया कि भूख–प्यास, शोक–मोह, जरा–मृत्यु ये सभी प्राणियों में होते हैं। इन्हें रोकना असंभव है। अतः इस प्रकार शोक नहीं करना चाहिए।” तत्वज्ञ सुमन्त्र जी ने भी शत्रुघ्न को संभाला और जन्म-मरण की अनिवार्यता का स्मरण दिलाकर उनके मन को शांत किया। तब दोनों भाइयों अपने आँसू पोंछकर शेष कर्म को पूर्ण करने लगे। रो-रोकर उनकी आँखें लाल हो गई थीं और शोक से उनका हृदय विदीर्ण हो गया था। तेरहवें दिन का यह कार्य पूर्ण करके लौटने पर भरत ने अपने भाई शत्रुघ्न से कहा, “भाई! यह कितने खेद की बात है कि सर्वगुणसंपन्न श्रीराम को इस प्रकार वन में भेज दिया गया। तब पराक्रमी लक्ष्मण ने श्रीराम को इस संकट से क्यों नहीं छुड़ाया? जब राजा एक नारी के वश में होकर गलत मार्ग पर बढ़ रहे थे, तब न्याय-अन्याय का विचार करके उन्हें पहले ही कैद कर लेना चाहिए था।” भरत और शत्रुघ्न इस प्रकार क्रोध में बातें कर रहे थे कि तभी मंथरा वहाँ आ पहुँची। उसके शरीर पर उत्तम चंदन का लेप लगा हुआ था और उसने राजरानियों के पहनने योग्य अनेक आभूषण धारण किए हुए थे। उसकी विचित्र लड़ियों वाली करधनी तथा अनेक आभूषणों के कारण वह बहुत–सी रस्सियों में बँधी हुई वानरी जैसी लग रही थी। राजभवन के पूर्वी द्वार पर उसे देखते ही द्वारपाल ने उसे पकड़ लिया और निर्दयता से घसीटता हुआ शत्रुघ्न के पास लाकर बोला, “राजकुमार! यह कुब्जा ही सब बुराइयों की जड़ है। इसी के कारण श्रीराम को वनवास हुआ और आपके पिता की मृत्यु हुई। अब आप इसके साथ जैसा उचित समझें, वैसा बर्ताव करें।” तब शत्रुघ्न क्रोध में आकर उसे बलपूर्वक पकड़कर जमीन पर घसीटते हुए ले जाने लगे। वह जोर-जोर से चीत्कार करने लगी व उसके आभूषण टूट-टूटकर इधर-उधर बिखरने लगे। अन्य सारी दासियाँ भय के कारण भाग गईं। उसी समय उसे छुड़ाने के लिए कैकयी वहाँ आई। क्रोधित शत्रुघ्न अब उसे देखकर भी अनेक कठोर वचन कहने लगे। इससे भयभीत होकर कैकेयी अपने पुत्र भरत की शरण में भागी। शत्रुघ्न को क्रोध में भरा हुआ देखकर भरत ने कहा, “सुमित्राकुमार! क्षमा करो। स्त्रियाँ सभी के लिए अवध्य होती हैं, अन्यथा मैं स्वयं ही इस पापिणी कैकेयी को मार डालता। यदि हम ऐसा कुछ करेंगे, तो श्रीराम सदा के लिए हमसे बात करना बंद कर देंगे और मातृघाती समझकर मुझसे घृणा करेंगे।” यह सुनकर शत्रुघ्न ने मंथरा को छोड़ दिया। वह कैकेयी के चरणों में गिर गई और दुःख से आर्त होकर विलाप करने लगी चौदहवें दिन प्रातःकाल सभी राजकर्मचारी भरत से मिलने आए। उन्होंने भरत से कहा, “महाराज दशरथ ने श्रीराम व लक्ष्मण को वन में भेज दिया और वे स्वयं स्वर्गलोक को चले गए। अब इस राज्य का कोई स्वामी नहीं है, अतः आप ही हमारे राजा बन जाइये। आपके बड़े भाई को स्वयं महाराज ने ही वनवास दिया था और उन्होंने ही आपको यह राज्य भी प्रदान किया था, इसलिए यह न्यायसंगत भी है कि अब आप राजा बनें।” तब भरत ने उत्तर दिया, “सज्जनों! आप सब लोग बुद्धिमान हैं। आपको मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। हमारे कुल में सदा सबसे बड़ा भाई ही राजा बनता है, अतएव श्रीराम ही राजा बनेंगे क्योंकि वे हम सबके बड़े भाई हैं। उनके बदले में मैं चौदह वर्षों तक वन में निवास करूँगा।” “आप लोग विशाल चतुरंगिणी सेना तैयार करवाइये। राज्याभिषेक के लिए संचित की गई सामग्री को साथ लेकर मैं स्वयं वन में जाऊँगा और वहीं श्रीराम का राज्याभिषेक करके मैं उन्हें लेकर अयोध्या लौटूँगा। मेरी माता कहलाने वाली इस कैकेयी का मनोरथ मैं कदापि सफल नहीं होने दूँगा। यहाँ के राजा श्रीराम ही होंगे। भरत की आज्ञानुसार तुरंत ही कुशल कारीगरों को रवाना किया गया। ऊँची-नीची भूमि को समतल करने वाले, सजल व निर्जल भूमि का ज्ञान रखने वाले, छावनी के लिए रस्सी आदि बाँधने वाले, भूमि खोदने और सुरंग बनाने वाले, नदी पार करने की व्यवस्था करने वाले, थवई (मकान बनाने वाले), रथ और यन्त्र बनाने वाले, बढ़ई, मार्गरक्षक, पेड़ काटने वाले, रसोइये, चूने से पुताई करने वाले, बाँस की चटाई और सूपे आदि बनाने वाले, चमड़े का चारजामा (घोड़े की जीन) बनाने वाले और रास्ते की विशेष जानकारी रखने वाले लोग इस कार्य के लिए भेजे गए। मार्ग में जिन स्थानों पर स्वादिष्ट फलों की अधिकता थी, वहाँ छावनियाँ बनाई गईं। उधर अयोध्या में एक दिन प्रातःकाल महर्षि वसिष्ठ सभाभवन में आए, जहाँ राजा दशरथ का दरबार लगता था। उस सभाभवन का अधिकाँश भाग सोने से बना हुआ था और उसमें खंभे भी सोने के लगे हुए थे। अपने शिष्यों के साथ वहाँ प्रवेश करके वसिष्ठ जी ने स्वर्णपीठ पर अपना आसन ग्रहण किया। इसके बाद उन्होंने दूतों को आज्ञा दी, “तुम लोग जाकर ब्राह्मणों, क्षत्रियों, अमात्यों, सेनापतियों, मन्त्री युधाजित, सुमन्त्र और भरत व शत्रुघ्न को शीघ्र बुला लाओ। हमें उनसे अत्यंत आवश्यक कार्य है।”
सब लोगों के आने पर महर्षि ने भरत से कहा, “वत्स! राजा दशरथ ने प्राण त्यागने से पहले स्वयं यह राज्य तुम्हें सौंपा था। श्रीराम ने भी उनकी इस आज्ञा को स्वीकार किया था। अतः तुम अब अपना राजतिलक करवा लो।” यह बात सुनकर भरत पुनः शोक में डूब गए और आँसू बहाते हुए उन्होंने सभा में कहा, “गुरुदेव! महाराज दशरथ का कोई भी पुत्र अपने बड़े भाई के राज्य का अपहरण कैसे कर सकता है? श्रीराम आयु में और गुणों में भी मुझसे बड़े हैं। मैं स्वयं वन में जाकर उन्हें ले आऊँगा, अन्यथा मैं भी लक्ष्मण के समान ही उनके साथ वन में निवास करूँगा।” भरत ने आगे कहा, “मार्ग तैयार करने के लिए मैंने अवैतनिक एवं वेतनभोगी कर्मचारियों को पहले ही आगे भेज दिया था। अब हम लोगों को भी चलना चाहिए। सुमन्त्रजी! आप तुरंत जाकर सबको वन में चलने की सूचना दीजिए और सेना को भी शीघ्र बुलाइये। यह समाचार मिलते ही अयोध्या के सब लोग हर्षित हो उठे। उसी दिन सब तैयारी पूरी करके अयोध्या के घर-घर से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी वर्णों के लोग अपने-अपने घोड़े, हाथी, ऊँट, गधे, रथ आदि तैयार करके अगले दिन प्रातःकाल भरत के साथ निकल पड़े। भरत अपने उत्तम रथ पर आरूढ़ थे। उनके आगे-आगे सभी मंत्री एवं पुरोहितगण घोड़ों से जुते हुए रथों पर यात्रा कर रहे थे। सुन्दर सजाए गए नौ हजार हाथी भरत के पीछे-पीछे थे। उनके पीछे साठ हजार रथ और अनेक प्रकार के शस्त्र धारण किए हुए योद्धा जा रहे थे। एक लाख घुड़सवार भी साथ थे। कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी भी श्रीराम को वन से लौटाने के लिए अपने रथों पर सवार होकर जा रही थीं। मणिकार (मणियों को चमकाने वाले), कुम्हार, वस्त्र बनाने वाले, शस्त्र निर्माण करने वाले, मायूरक (मोर पंखों से छत्र आदि बनाने वाले),आरे से चंदन की लकड़ी चीरने वाले, मणि-मोती आदि में छेद करने वाले, रोचक (दीवारों, वेदी आदि को सजाने वाले), दंतकार (हाँथीदाँत से सुंदर वस्तुओं का निर्माण करने वाले), सुधाकर (चूना बनाने वाले), गंधी, सुनार, कंबल व कालीन बनाने वाले, गर्म जल से नहलाने का काम करने वाले, वैद्य, धूपक (धूप आदि से जीविका चलाने वाले), शौण्डिक (मद्य बेचने वाले), धोबी, दरजी, नट, केवट तथा वेदों के जानकार सहस्त्रों ब्राह्मण भी बैलगाड़ियों पर सवार होकर भरत के पीछे-पीछे चले। बहुत दूर का मार्ग तय कर लेने के बाद वे सब लोग गंगा तट पर श्रृंगवेरपुर में जा पहुँचे, जहाँ श्रीराम का मित्र निषादराज गुह शासन करता था। भरत की वह पूरी सेना गंगा तट पर आकर ठहर गई। वहाँ भरत ने अपने सचिवों से कहा, “आज रात्रि में यहीं विश्राम करके हम लोग कल सुबह गंगाजी को पार करेंगे। यहाँ ठहरने का एक और कारण यह भी है कि मैं गंगाजी में उतरकर अपने स्वर्गीय पिताजी के पारलौकिक कल्याण के लिए जलाञ्जलि देना चाहता हूँ।”
उधर निषादराज गुह ने जब गंगा तट पर ठहरी हुई उस विशाल सेना को देखा, तो अपने भाई–बंधुओं से कहा, “भाइयों! यह जो विशाल सेना सामने है, इसका ओर–छोर मुझे दिखाई नहीं दे रहा है। बहुत सोचने पर भी मैं इसके आने का कारण नहीं समझ पा रहा हूँ। लेकिन कोविदार (कचनार) के चिह्न वाली विशाल ध्वजा कर रथ पर फहरा रही है, इससे मैं समझता हूँ कि निश्चित ही दुर्बुद्धि भरत स्वयं यहाँ आया हुआ है। मुझे लगता है कि वह हम सबको बंदी बनाएगा या हमारा वध कर डालेगा। फिर वह वन में जाकर वह श्रीराम को भी मार डालेगा क्योंकि वह इस समृद्ध राज्य को अकेला ही हड़पना चाहता है।” “लेकिन श्रीराम मेरे स्वामी और सखा हैं। उनके हित की कामना से तुम सब लोग अस्त्र–शस्त्र धारण करके यहीं गंगा–तट पर डटे रहो। अपनी मल्लाह सेना से भी कह दो कि सभी लोग आज नावों में रखे फल–मूल आदि का ही आहार करें और नदी की रक्षा करते हुए गंगातट पर ही रुके रहें।” “हमारे पास पाँच सौ नावें हैं। प्रत्येक नाव पर सौ–सौ मल्लाह योद्धा अपने अस्त्र–शस्त्रों से सज्जित होकर तैयार बैठे रहें। यदि श्रीराम के प्रति भरत के मन में अच्छी भावना हो, तभी उसकी यह सेना आज कुशलतापूर्वक गंगा के पार जा सकेगी, अन्यथा नहीं।” ऐसा कहकर निषादराज गुह मत्स्य, मांस और मधु (शहद) आदि उपहार में लेकर भरत से मिलने गया।
नोट:- वाल्मीकि रामायण में इन सब घटनाओं को बहुत विस्तार से बताया गया है परन्तु यहां संक्षेप में केवल उसका सारांश ही लिखा जा रहा है।
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जय श्रीराम
बहुत ही विस्तृत वर्णन।।।
जय सियाराम।।।
जय श्रीराम