नारद जी और हनुमानजी संवाद
एक बार नारद मुनि और राम- भक्त हनुमान के बीच एक रोचक संवाद हुआ! यह संवाद मीठा भी था और भक्तिमयी मणियों से सुसज्जित भी था! हुआ यूँ कि नारद जी को एक भोली सी शरारत सूझी! उन्होंने हनुमंत को घेरने की योजना बना ली! एक रसीला व्यंग्य कसते हुए बोले- ‘है अंजनी पुत्र! ज़ब भी मै तुम्हारे कर्मों पर दृष्टिपात करता हूँ, तो मेरी आत्मा सिंहर उठती है! ऐसा प्रतीत होता है, कि तुममें तो भक्त का एक भी गुण नहीं है!‘
हनुमान जी ने यह सुना, तो थोड़े असमंजस मे पड़ गए! ‘मुनिवर, आप महाज्ञानी है! जो कहते है, वह मर्मभेदी होता है! इसलिए मै आपके मंन्तव्य को स्पष्ट रूप से समझना चाहूंगा!’- हनुमंत ने आग्रह किया!
नारद मुनि – देखो हनुमान! वेदों मे 6 प्रकार के आक्रमणकारियों का उल्लेख किया गया है! उनमे से एक है- जो दूसरों के घरों को अग्नि- ज्वालाओ स्वाहा कर देता है! तुमने भी वहीं किया है! बल्कि तुम तो देवी सीता की खोज मे लंका गए: एक- दो नहीं, सभी असुरो के घरों को तुमने भस्मीभूत कर दिया! सो हुए न तुम एक भीषण आक्रमणकारी! भला ऐसे हिंसावादी को भक्त कैसे कहा जा सकता है? एक सच्चा भक्त तो कभी ऐसा कार्य नहीं करता!
अब तक हनुमंत श्री नारद जी की छुपी छेड़खानी समझ चुके थे! इसलिए उनके चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान खिल गईं! वे भी नारद जी से रसवाद करने के लिए सज्ज हो गए! हनुमान जी बोले- ‘प्रिय मुनिवर! आप कह रहे है कि यह कार्य एक सच्चे भक्त को शोभा नहीं देता! पर मुझे लगता है कि यह तो एक सच्चे शिष्य का परम कर्तव्य है!’
‘वो कैसे हनुमंत?’- नारद जी ने जिज्ञासा रखी!
श्री हनुमंत -देखिए मुनिवर, प्रभु श्री राम का भक्त होने के नाते, लावारिस मृत शरीरो का अंतिम संस्कार करना भी मेरा दायित्व था! वह अति आवश्यक था ताकि वो आत्माएं अगले जन्म मे उत्तम जीवन को प्राप्त कर सके! नारद मुनि (हैरानी से )-लावारिस! मृतक शरीर! लंका मे कौन से ऐसे मृत शरीर थे? ……
श्री हनुमंत -जी हाँ मुनिवर, मृतक शरीर! हमारे ग्रंथो मे अंकित है, जिन जीवों मे ईश्वर के नाम की सरगम नहीं बजती, वे मृत ही है!
जिन्ह हरिभगति हृदयं नहि आनी!
जीवित सव समान तेइ प्राणी !!
जिनके ह्रदय मे हरि की भक्ति नहीं, जो उसके नाम से वँचित है, वे प्राणी होकर भी निष्प्राण है! उनकी गिनती जीवित शवो मे होती है! लंका मे मैंने ऐसे ही मृतक बहुतायत मे देखे! इसलिए मैंने सोचा, क्यों न मै इन सभी शवो का सामूहिक रूप से अंतिम- संस्कार कर दूँ! सबको अग्निदेव को समर्पित कर दूँ! पर हाँ… लंका मे एक स्थान ऐसा भी था, जहाँ मृतक नहीं, श्री राम का जीवित व जागृत भक्त रहता था! उस जगह पर ईश्वरीय नाम की दिव्य धुन तरंगित थी!
नारद मुनि – ऐसा कौन सा स्थान था वहाँ पर? ……….
श्री हनुमंत – विभीषण जी का निवास स्थान! उस स्थान से प्रभु श्री राम के नाम की पावन तरंगे झंकृत हो रही थी! इसलिए मैंने उस स्थान को नहीं जलाया और न ही कोई क्षति पहुंचाई!… बताइए न मुनिवर, क्या मेरा विवेक किसी आक्रमणकारी का आक्रोश था?
निःसंदेह, हनुमान जी का तर्क अचूक था! नारद जी मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे! तभी हनुमंत ने आगे कहा- ‘है मुनिवर! मै आपको अपने एक और घोर हिंसक कर्म से अवगत कराना चाहता हूँ! मुझे विश्वास है कि आप मेरे इस कृत्य को भी गंभीर पाप की श्रेणी मे रखेंगे! कारण कि मेरा यह कार्य तो असुरो को स्वाहा करने से भी अधिक जघंन्य अपराध आपको प्रतीत होगा! जानते है क्या?… ‘
नारद मुनि ने अपनी उत्सुक दृष्टि हनुमंत पर टिका दी!
श्री हनुमंत -असुरो के राज्य मे विध्वंस करते हुए मै बीच- बीच मे जोर- जोर से गुर्राता था! इतना तीव्र कि पूरा राज्य थरथरा उठता था! जानते है मुनिवर, इसका क्या परिणाम हुआ? गर्भ मे पल रहे राक्षसी बीजो का भी अंत हो गया! मेरी भयावह गर्जना से गर्भवती राक्षसियो का गर्भपात हो गया! इससे भविष्य मे भी दैत्यों की सेना मे वृद्धि होने की सारी संभावनाएं समाप्त हो गईं! मेरे प्रभु श्री राम के शांतमय राज्य मे आगे चलकर अब कोई विध्न नहीं डाल सकेगा!
नारद जी अत्यंत प्रफुल्लित हो उठे और हनुमंत का प्रेमालिंगन कर लिया! साथ ही, अपने शब्दों मे संशोधन करते हुए बोले- ‘प्रिय हनुमंत! तुम भक्त नहीं, बल्कि भक्त शिरोमणि हो! ऐसे सर्वोत्तम भक्त, जिसकी हिंसा मे भी लोक हित का भाव समाया है! जो अपने राम का काज परिपूर्णता से करता है !
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जय श्रीराम