भाईचारा
महाभारत का प्रसंग है! जुए में हारने के बाद पाँच पांडव बारह वर्ष के वनवास के दिन वनों एवं पर्वतों में व्यतीत कर रहे थे! एक समय वे द्वैतवन के समीप ब्रह्मणों के साथ निवास कर रहे थे कि शकुनि और कर्ण ने दुर्योधन को सलाह दी की हमारा विचार है कि तुम खूब ठाट-बाट से द्वैतवन को चलो और अपने वैभव और ऐश्वर्य से पांडवों को चमत्कृत कर दो!
धृतराष्ट्र से आज्ञा लेकर दुर्योधन कौरव-सेना के साथ उस जंगल के पास सरोवर पर पहुँचा| वहाँ सरोवर पर गन्धर्वराज चित्ररथ जलक्रीड़ा करने के लिए अपने सेवकों-साथियों को आज्ञा दी कि गन्धर्वों को वहाँ से निकाल दो! आपसी संघर्ष में गन्धर्वों ने दुर्योधन और दुःशासन आदि को पकड़ लिया| गन्धर्वों की लड़ाई से भागी हुई कौरवों की सेना ने पांडवों की शरण ली! उस समय दुर्योधन ने मंत्रियों ने बहुत गिड-गिड़ाकर धर्मराज युधिष्ठर से दुर्योधन की रक्षा करने की प्रार्थना की! धर्मराज युधिष्ठर ने अपने वीर भाइयों, योद्धा भीम और अर्जुन को उसे छुड़ाने की आज्ञा दी| उस समय भीम ने कहा- “हम बहुत कोशिश करके सेना के बल पर जो कार्य करते, वह गन्धर्वों ने कर दिया है| यह प्रसन्नता का समय है!”
उस समय युधिष्ठिर ने जवाब दिया- “अपने आपसी संघर्ष में हम पाँच भाई और वे सौ भाई आमने-सामने हैं, परंतु जब दूसरों से संघर्ष हो तब हम एक सौ पाँच हैं!”
परस्परं विवादे तु वयं पश्च शतं चते! अन्यैः सह विवादे तु वयं पंचशतोतरम्!!
मित्रों” भाईचारे का कितना सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया गया है| यह बात सही है कि आपसी झगड़े में किसी बाहर वाले का साथ नहीं करना चाहिए..!!
जय श्रीराम