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सदा सुहागन रहो

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सदा सुहागन रहो

मीना की दादी गांव से आई तो मीना की मां किरन ने जैसे अपनी सास के पैरों को हाथ लगाया तो उसकी सास ने किरन को “सदा सुहागन रहो” का आशीर्वाद दिया!

यह सब मीना बहुत बार देख चुकी सी। बहुत सारे बुजुर्ग हर औरत यही आशीर्वाद देते थे। इस बार मीना से रहा नहीं गया। वो अपनी मां से बोली

“ये क्या मम्मी, आप जब भी दादी के पैर छूते हो दादी सदैव यहीं आशीर्वाद देती है कि सदा सुहागन रहो। क्या दादी ये नहीं कह सकती सुखी रहो, खुश रहो। ऐसे तो दादी सदा सुहागन का आशीर्वाद इन डायरेक्टली अपने बेटे को दे रही है?

” तो इसमें गलत क्या है। उनके बेटे मेरे पति भी तो है। मेरा हर सुख उन्ही के साथ है। अगर वो है तो मै हूं ।”

“इसका मतलब औरत का अपना कोई वजूद नहीं है?”

“ओह हो, कहां की बात कहां लेकर जा रही। पति का होना पत्नी के लिए इक सुरक्षा कवच की तरह होता है। ये बात तुम अभी नहीं समझोगी।”

“लेकिन मम्मी…..

“लेकिन वेकिन कुछ नहीं, मेरे पास तुम्हारे फालतू सवालों का जवाब नहीं, जा कर अपनी पढ़ाई करो।”

मीना अपने कमरे चली गई। कमरे मैं जा कर खुद से बातें करने लगी। ये भी कोई बात हुई, पति ना हो गया भगवान हो गया , सारा दिन पीछे पीछे घूमते रहो, पसंद की सब्जी बनाओ, व्रत रखो, कहीं जाना हो पूछ कर जाओ, औरत को किस बात कि आजादी है फिर? आशीर्वाद भी ऐसे मिले कि सीधे सीधे पति के नाम हो , हुंह… मैं तो नहीं मानूंगी हर बात, बराबर की बन कर रहूंगी। पुराने सब बातें मैं नहीं मानूंगी… अगर इज्जत मिलेगी तो ही इज्जत दूंगी। नहीं तो एक की चार सुनाऊंगी।

हमेशा ऐसी बातें सोचने और करने वाली मीना की भी एक दिन शादी हो गई। उसका पति नील उसे सिर आंखों पर रखता। मीना भी उसकी हर बात मानती। उसकी पसंद का खाना बनाती। जो कपड़े नील मीना के लिए पसंद करता, वहीं मीना की पसंद बन जाती।

अब जब भी किरन फोन करती तो मीना अपनी बातें कम नील की बातें ज्यादा करती। किरन ये सोच कर मुस्कराने लगती…. जो बेटी हमेशा कहती थी,

“औरत का भला पति के बिना कोई वजूद नहीं है” आज उसी बेटी का पति उसकी पूरी दुनिया बना हुआ है। बेटी जमाई एक साथ बहुत खुश थे। ये सोच किरन बहुत खुश थी।

एक साल बाद उनकी खुशियां दुगनी हो गई। जब उनके घर एक प्यारे से बेटे अंश ने जन्म लिया। अंश अभी एक साल का भी नहीं हुआ था…नील के साथ एक हादसा हो गया। उसको बहुत चोटें लगी। सिर्फ चेहरे को छोड़ कर पूरा शरीर पट्टियों से बंधा पड़ा था। मीना का रो रो कर बुरा हाल था। उसे अंश को संभालने का भी होश नहीं था। किरन कभी बेटी को संभालती कभी अंश को। दिन रात भगवान से प्रार्थना करती। तीन दिन हो गए थे… नील के शरीर में कोई हलचल नहीं हुई थी। तीन दिन बाद गांव से मीना के दादा दादी आए। मीना भाग कर उनके पास गई। और उनके पैरों में गिर पड़ी। दादी ने उठाने की कोशिश की …. मीना गिड़गिड़ाने लगी।

“दादी मुझे भी वो आशीर्वाद दीजिए, जो आप मम्मी को देती थी।”

बेटी की ऐसी हालत देख कर किरन की रुलाई छूट गई। दादी भी रोने लगी। और रोती हुई आवाज़ में दादी ने पोती के सिर पर हाथ रखते हुए कहा…

“सदा सुहागन रह मेरी बच्ची, सदा सुहागन रह।”

दादी का इतना कहना था कि नर्स आ कर बोली , मरीज के शरीर में हरकत हुई है।

सब की आंखो में एक चमक आ गई। मीना भी अब आशीर्वाद की ताकत को समझ गई थी। उसने दादी को गले लगाया। और बोली

“धन्यवाद दादी।”

और भाग कर नील के कमरे की तरफ चली गई।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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