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अनमोल सुख

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अनमोल सुख

हम सुख के पीछे भाग रहे है पर सुख और कहीं नहीं हमारे अंदर ही छुपा है एक आदमी के पास बहुत धन था। इतना कि अब और धन पाने से कुछ सार नहीं था।जितना था, उसका भी उपयोग नहीं हो रहा था। मौत करीब आने लगी थी। न बेटे थे, न बेटियां थीं, कोई पीछे न था। और जीवन धन बटोरने में बीत गया। वह तथाकथित महात्माओं के पास, कि मुझे कुछ आनंद का सूत्र दो। महात्मा, पंडित, पुरोहित, सब के द्वार खटखटाए। खाली हाथ लौटा।

फिर किसी ने कहा कि एक साधू को हम जानते हैं, शायद वही कुछ कर सके। उनके ढंग जरूर अनूठे हैं; इसलिए चौंकना मत। उनके रास्ते उनके निजी हैं; उनकी समझाने की विधियां भी थोड़ी बेढब होती हैं। मगर अगर कोई न समझा सके, तो जिनका कहीं कोई इलाज नहीं है, उस तरह के लोगों को हम वहां भेज देते हैं। जिनका कहीं कोई इलाज नहीं, उनके लिए सुनिश्चित यहां उपाय है। उस धनी ने एक बड़ी झोली भरी हीरे—जवाहरातों से और गया साधू के पास। साधू बैठे थे एक झाड़ के नीचे। पटक दी उसने झोली उनके सामने और कहा कि इतने हीरे—जवाहरात मेरे पास हैं, मगर सुख का कण भी मेरे पास नहीं। मैं कैसे सुखी होऊं ?…….

साधू ने आव देखा न ताव, उठाई झोली और भागे ! वह आदमी तो एक क्षण समझ ही नहीं पाया कि यह क्या हो रहा है। महात्मागण ऐसा नहीं करते ! एक क्षण तो ठिठका रहा, अवाक ! फिर उसे होश आया कि इस साधू ने तो लूट लिया, मारे गए, सारी जिंदगी भर की कमाई ले भागा। हम सुख की तलाश में आए थे, और दुःखी हो गए। भागा, चिल्लाया कि लुट गया, बचाओ ! चोर है, बेईमान है, भागा जा रहा है ! पूरे गांव में उस साधू ने चक्कर लगवाया। साधू का गांव तो जाना—माना था, गली—कूंचे से पहचान थी, इधर से निकले, उधर से निकल जाए।

भीड़ भी पीछे हो ली— भीड़ तो साधू को जानती थी ! कि जरूर होगी कोई विधि ! गांव तो साधू से परिचित था, उसके ढंगों से परिचित था। धीरे—धीरे आश्वस्त हो गया था कि वह जो भी करे, वह चाहे कितना बेबूझ मालूम पड़े, भीतर कुछ राज होता है। लेकिन उस आदमी को तो कुछ पता नहीं था। वह पसीना—पसीना, कभी भागा भी नहीं था जिंदगी में इतना, थका—मांदा, साधू उसे भगाता हुआ, दौड़ाता हुआ, पसीने से लथपथ करता हुआ वापिस अपने झाड़ के पास लौट आया।

जहां उसका घोड़ा खड़ा था। लाकर उसने थैली वहीं पटक दी झाड़ के पीछे छिप कर खडे हो गए। वह आदमी लौटा; झोला पड़ा था, घोड़ा खड़ा था; उसने झोला उठा कर छाती से लगा लिया और कहा कि  हे परमात्मा ! तेरा धन्यवाद !

आज मुझ जैसा प्रसन्न इस दुनिया में कोई भी नहीं ! साधु  वृक्ष के उस तरफ से झांके और , कहा : कुछ सुख मिला ? यही राज है। यही झोली तुम्हारे पास थी, इसी को लिए तुम फिर रहे थे, और सुख का कोई पता नहीं था। यही झोली वापिस तुम्हारे हाथ में है, लेकिन बीच में फासला हो गया, थोड़ी देर को झोली तुम्हारे हाथ में न थी, थोड़ी देर को झोली से तुम वंचित हो गए थे, अब तुम कह रहे हो आनंद आ गया—शर्म नहीं आती तुम्हे कह रहे हो कि हे प्रभु, धन्यवाद तेरा कि आज मैं आह्लादित हूं, आज पहली दफा आनंद की थोड़ी झलक मिली। अरे पागल आदमी ये झोली जिसमे तुझे सुख दिखने लगा प्रभु ने पहले से तुम्हे दी हुई थी पर तुझे उसका मूल्य नहीं था खोने पर अकल आ गई। बैठो घोड़े पर और भाग जाओ, नहीं तो मैं झोली फिर छीन लूंगा। रास्ते पर लगो ! रास्ता तुम्हें मैंने बता दिया।

लोग ऐसे हैं,लोग ही नहीं, सारा अस्तित्व ऐसा है। हम जिसे गंवाते हैं,बाद में उसका मूल्य पता चलता है। जब तक गंवाते नहीं तब तक मूल्य पता नहीं चलता। जो तुम्हें मिला है, उसकी तुम्हें दो कौड़ी कीमत नहीं है। जो खो गया, उसके लिए तुम रोते हो। जो खो गया, उसका अभाव खलता है।व्यक्ति के जाने के बाद उसकी याद आती है कमी खलती है महत्व समझता है तो उसके रहते में रिश्ते में गर्मी लाओ न। उसको पूरा मान सम्मान दो न। रिश्ते में अहसास कराओ कि आप का होना जिंदगी में बहुत जरूरी हैं।                                                                                                            

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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