ईसा से लगभग सौ वर्ष पहले उज्जैन के राजा विक्रमादित्य अयोध्या पहुँचे थे। तब तक अयोध्या उजड़ चुकी थी। यहाँ उनकी भेंट तीर्थराज प्रयाग से हुई। तीर्थराज ने उन्हें अयोध्या और सरयू के बारे में बताया। विक्रमादित्य ने अपनी उलझन बताते हुए कहा उजड़ी हुई अयोध्या की सीमा और क्षेत्रफल के बारे में कैसे पता चलेगा। उन्होंने कहा – ”गवाक्ष कुंड के पश्चिम तट पर एक रामनामी वृक्ष लगा है।
ये वृक्ष अयोध्या की परिधि नापने के लिए लगाया गया था। इस वृक्ष के एक मील के घेरे में एक नवप्रसूता गौ को घुमाओ। जिस स्थान पर उसके स्तनों से दूध की धारा गिरने लगे, समझना वही राम की जन्मभूमि है।” ….विक्रमादित्य ने ठीक ऐसा ही किया। राम जन्मभूमि पर खुर रखते ही गौ माता के स्तनों से दूध की धारा फूट पड़ी। नवप्रसूता गाय का दूध जहाँ पर गिरा था, ठीक उसी स्थान पर उन्होंने श्री राम मंदिर का निर्माण करवाया। बाबरी विध्वंस के बाद ‘कसौटी के पत्थर से बने स्तम्भ’ प्राप्त हुए थे।
बाबर के हुक्मनामों के अनुसार उसके सेनापति मीरबाकी ने जब राम मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवानी शुरू की तो उनको बड़ी परेशानी होती थी। दिन में मस्जिद की दीवार खड़ी की जाती थी और रात को हिन्दुओं द्वारा गिरा दी जाती थी। लखनऊ गजेटियर के भाग 36 पृष्ठ 3 पर लिखा है – ‘जन्मभूमि के मंदिर को गिराये जाने के समय हिंदुओं ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी और एक लाख 73 हजार हिंदुओं की लाशें गिर जाने के बाद मीर बाकी ने तोप से मंदिर को गिरा दिया।
23 मार्च 1528 को राम मंदिर तोड़ दिया गया था।’ ‘याद दिलाना जरुरी है ये कथा… चार बार उजड़ चुकी अयोध्या की रौनक लौटाने के लिए भारत को पुनः एक ‘विक्रमादित्य’ की आवश्यकता थी। वह जो रामनामी वृक्ष सैकड़ों वर्ष पूर्व नष्ट हो गया था, उसकी असंख्य जड़ें पीढ़ी दर पीढ़ी रक्त के साथ प्रवाहमान होकर करोड़ों मनों के अंदर लहलहा रही ये जड़ें अब बाहर निकलकर फूट रही हैं …! हाँ एक बार फिर प्रभु श्रीराम आ गए हैं और एक बार फिर अयोध्या बस रही है…।
जय श्रीराम