जय श्री राधे कृष्ण …….
सुनहु पवनसुत रहनि हमारी, जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी, तात कबहु मोहि जानि अनाथा, करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा…..!!
भावार्थ:- विभीषण जी ने कहा, हे पवनपुत्र, मेरी रहनी सुनो । मैं यहां वैसे ही रहता हूँ, जैसे दांतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात ! मुझे अनाथ जानकर सूर्य कुल के नाथ श्री रामचंद्र जी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे……!!
सुप्रभात
आज का दिन प्रसन्नता से परिपूर्ण हो..