पुण्य भी गोपनीय रखकर ही करने चाहिए
पुण्य भी पाप की तरह गोपनीय बनाकर करना चाहिए। हम लोग जब कोई गलत काम करते हैं तो उसे छिपाने का प्रयास करते हैं और अच्छे काम को बहुत प्रचारित करने लगते हैं। यद्यपि सत्य तो यह है कि धर्म यानी सदकार्य गोपनीय हो और अधर्म (दुष्कर्मों) का प्रदर्शन करना चाहिए। जब अधर्म प्रदर्शित करेंगे तो स्वयं अपने आप नियंत्रित होने लग जाएंगे। लेकिन कभी-कभी पुण्य को इसलिए प्रकट करना पड़ता है कि एक तो और लोग इससे प्रेरित हो और दूसरा पाप का नाश हो। यदि उद्देश्य ऐसा हो तो धर्म को, पुण्य को, अच्छी बात को प्रचारित करने में बुराई नहीं है।
अंगद ने लंका में ऐसा ही किया था। जब रामदूत बनकर पहुंचे तो उन्हें देख सारे राक्षस डर गए। लंका के राक्षस यानी दुर्गुण। क्या दृश्य लिखा है यहां तुलसीदासजी ने, ‘ अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।। बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।… मतलब राक्षसरूपी दुर्गुण भयभीत होकर विचार करने लगे कि अब पता नहीं विधाता क्या करेगा? वे बिना पूछे ही अंगद जी को रास्ता दे रहे थे।
जिस राक्षस पर भी अंगद जी की दृष्टि पड़ती, वह डर के मारे सूख जाता था। जब हम सदमार्ग पर चलते हैं तो बाधा पहुंचाते हैं हमारे ही दुर्गुण। यहां दुर्गुण अंगद जी की मदद कर रहे थे कि आप मंजिल तक पहुंच जाएं, क्योंकि रामदूत होने का पुण्य अंगद के साथ था। तो हमारे पुण्य तब जरूर प्रकट कीजिए जब पाप का विनाश करना हो। वरना अधिक प्रचारित सदकार्य भी अहंकार का कारण बन जाएंगे..!!
जय श्री राम
