सनातन धर्म में दान का बहुत अधिक महत्त्व बताया गया है। जब भी हम दानवीरता की बात करते हैं तो हमारे मष्तिष्क में सहसा अंगराज कर्ण की तस्वीर बनती है। वे निःसंदेह दानवीर थे किन्तु हमारा सनातन धर्म तो दानवीरों से भरा पड़ा है। वैसे तो इतिहास में एक से बढ़ कर एक दानवीर हुए हैं किंतु कुछ दानवीर ऐसे हैं जिन्होंने दान की हर सीमा को पार कर दिया इसीलिए इनकी श्रेणी अन्य दानवीरों की अपेक्षा अलग ही बन गयी। आइये ऐसे ही कुछ दानवीरों के विषय में जानते हैं:
दैत्यराज बलि: प्रह्लाद के पौत्र एवं विरोचन के पुत्र, इन्हें सबसे बड़ा दानवीर माना जाता है जिन्होंने भगवान वामन को ना सिर्फ पृथ्वी एवं स्वर्ग, अपितु स्वयं को भी दान दे दिया। इन्होंने भगवान वामन को तीन पग भूमि दान देने का निश्चय किया, वो भी ये जानते हुए कि वे साक्षात विष्णु अवतार हैं। जब वामनदेव ने दो पगों में पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लिया तब तीसरे पग के लिए उन्होंने अपना शीश आगे कर दिया। इससे वामनदेव अत्यंत प्रसन्न हुए और इन्हें चिरंजीवी बना कर पाताल लोक का स्थायी राज्य प्रदान किया। बाद में जब इन्होने भगवान विष्णु से वर प्राप्त कर उन्हें पाताल लोक में रोक लिया तब माता लक्ष्मी ने इन्हे राखी बाँधी और श्रीहरि को वापस मांग लिया। तब बलि ने सहर्ष श्रीहरि को लौटा दिया। आज भी पूजा में हम इन्ही बलि के श्लोक को पढ़ते है, “येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:।”
महर्षि दधीचि: महर्षि अथर्वण के पुत्र एवं ब्रह्मा के पौत्र ने दान की सर्वोत्तम परिभाषा स्थापित की। इन्होंने अनंतकाल तक तप कर अथाह पुण्य अर्जित किया। जब वृत्रासुर ने अत्याचार किया तो उसके वध के लिए इंद्र को एक महान दिव्य अस्त्र की आवश्यकता पड़ी। सभी ने उनसे कहा कि केवल महर्षि दधीचि की अस्थियों में उनके संचित पुण्य के कारण इतना बल है कि उसी से बने अस्त्र से वृत्रासुर का वध हो सकता है। इस पर इंद्रदेव ने बड़े संकोच के साथ महर्षि दधीचि को अपनी समस्या बताई। तब उस अस्त्र के लिए दधीचि ने अपने तत्काल प्राणों का त्याग कर दिया और उनकी अस्थियों से विश्वकर्मा ने वज्र का निर्माण किया जिससे इंद्र ने वृत्र का वध किया।
महाराज नृग: ये श्रीराम के पूर्वज और महाराज इक्ष्वाकु के पुत्र थे। इनकी दानवीरता ऐसी थी कि ये प्रतिदिन सवा लाख गौवें दान करते थे। ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वी में जितने धूलकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं और वर्षा में जितनी जलराशि हैं, अपने पूरे जीवनकाल में उतनी गाय इन्होने दान की थी। यही नहीं, दान से पहले ये सभी गायों के सींगो को स्वर्ण एवं खुरो को रजत से मढ़ देते थे और उसके साथ एक बछड़ा भी दान करते थे। एक बार इन्होने एक ब्राह्मण को जो गाय दान दी वो उससे बिछड़कर वापस नृग की गौशाला में आ गयी। राजा को इसका तनिक भी ध्यान नहीं था और इसी कारण उन्होंने वही गाय एक दूसरे ब्राह्मण को दान दे दी। जब पहले ब्राह्मण ने ये देखा तो दोनों में विवाद होने लगा। दोनों कहते कि गाय उन्हें दान में मिली है। बाद में दोनों राजा नृग के पास निवारण हेतु पहुँचे किन्तु राज-काज में व्यस्त होने के कारण वे उनसे ना मिल सके। तब क्रोधित होकर उन ब्राह्मणों ने उन्हें गिर जाने का श्राप दिया और वे गिरगिट के रूप में कई युग पृथ्वी पर ही रहे। बाद में द्वापर युग में श्रीकृष्ण के हाथों वे श्राप से मुक्त हुए। श्रीराम ने भी लक्ष्मण से राजा नृग के दानवीरता की चर्चा की थी।
राजा हरिश्चंद्र: इन्होंने तो दान की सारी सीमाएं पार कर दी। ये श्रीराम के पूर्वज थे जिन्होंने दान में अपना सारा साम्राज्य महर्षि विश्वामित्र को दे दिया। तब विश्वामित्र ने दक्षिणा के रूप में इनसे तीन स्वर्ण मुद्राएं और मांगी। उसका प्रबंध करने हेतु उन्होंने स्वयं को एक शमशान के चांडाल को बेच दिया और तीन स्वर्ण मुद्राएं महर्षि विश्वामित्र को दक्षिणा के रूप में दी। धर्म के लिए अपनी पत्नी और पुत्र का दान कर दिया। जब इनका एकमात्र पुत्र मर गया तब भी इन्होंने सत्य का मार्ग नही छोड़ा और अपनी पत्नी से अपने ही पुत्र को जलाने के लिए कर मांगा। वो कहाँ से देती? तब उन्होंने अपनी साड़ी का आधा भाग फाड़ कर अपने पति को ही दान दिया। तब आकाश से देवताओं ने पुष्पवर्षा की और महर्षि विश्वामित्र ने इनकी सारी संपत्ति लौटा दी। इस घटना के बाद इनका यश युग युगांतर तक फैल गया।
राजा शिबि: ये राजा उनीशर के पुत्र थे। एक बार धर्मराज ने इनकी परीक्षा लेने के लिए एक कबूतर के रूप में इनके पास गए और एक बाज से अपने प्राणों की रक्षा करने को कहा। मायारूपी बाज ने कहा कि वो राजा हैं इसीलिए उसके भोजन का प्रबंध करना भी उनका दायित्व है। तब महाराज शिबि ने कबूतर के भर के बराबर अपना मांस देना स्वीकार कर लिया। वो एक पडले में कबूतर को रख कर दूसरे में अपने शरीर का मांस काट काट कर रखने लगे। किन्तु जब पडला नही झुका तो अंततः वे स्वयं तराजू पर बैठ गए, जिससे भार बराबर हो गया। तब शिबि ने बाज से कहा कि वो उन्हें खा ले। तब धर्मराज ने उन्हें दर्शन दिए और अनेक आशीर्वाद दिए।
राजा रघु: ये श्रीराम के पूर्वज थे। इन्होने अश्वमेघ यज्ञ कर संसार पर अधिकार प्राप्त कर लिया और स्वयं इंद्र से युद्ध कर उनसे अपना अश्व वापस लिया। फिर इन्होने अपना समस्त धन दान कर दिया। बाद में जब महर्षि विश्वामित्र ने इनसे १४ करोड़ स्वर्ण मुद्राओं का दान माँगा तो इन्होने कुबेर से युद्ध कर उनसे १४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त की और उसे महर्षि विश्वामित्र को दान किया। फिर पुनः इन्होने विश्वजीत नामक यज्ञ कर अपना सब कुछ दान कर दिया।
एकलव्य: एक बार पांडव वन भ्रमण को निकले तो एक कुत्ता देखा जिसका मुँह बाणों से भरा था किंतु वो जीवित था। अर्जुन और द्रोणाचार्य ये देख कर हैरान रह गए। आगे जाकर देखा तो उन्हें हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य दिखा, जो द्रोणाचार्य की मूर्ति बना कर धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। द्रोण अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने का वचन दे चुके थे इसीलिए उन्होंने गुरुदक्षिणा में एकलव्य का अंगूठा मांग लिया जिसे एकलव्य ने बिना सोचे दे दिया। कई लोग इसे इस प्रकार भी देखते हैं कि एकलव्य को गुरु द्रोण ने उसकी गुरुनिष्ठा से प्रसन्न होकर उसे बिना अंगूठे, केवल अँगुलियों से धनुर्विद्या का रहस्य प्रदान किया जिससे उसकी साधना पूर्णता को प्राप्त हुई। कालांतर में जरासंध के पक्ष में उसे केवल ४ अँगुलियों से युद्ध करता देख श्रीकृष्ण भी हैरान रह गए। बाद में श्रीकृष्ण ने ही एकलव्य का वध कर उसे मोक्ष प्रदान किया।
बर्बरीक: वैसे तो बर्बरीक की कथा का वर्णन महाभारत में नही आता किन्तु लोक कथाओं के रूप में ये बहुत प्रचलित है। बर्बरीक ने हारे हुए पक्ष की ओर से युद्ध करने का प्रण लिया। श्रीकृष्ण ये जानते थे कि बर्बरीक की इस प्रतिज्ञा के कारण महाभारत का वास्तविक उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने इनसे उनका सर दान में मांग लिया। इसपर बर्बरीक ने हंसते हुए अपना सर काट कर दे दिया। इसके बाद बर्बरीक ने इच्छा जताई कि उन्हें ये युद्ध देखना है। तब श्रीकृष्ण ने इनका सर एक पहाड़ी पर रख दिया जहां से इन्होंने सारा युद्ध देखा।
कर्ण: इनकी दानवीरता के विषय में तो सबको पता ही है। इनकी दानवीरता की चर्चा से महाभारत भरा हुआ है। प्रतिदिन सूर्य पूजा के बाद इनके पास जो कुछ भी होता था वो ये दान कर देते थे। इनके द्वार से कोई याचक खाली नही गया। इन्होंने ये जानते हुए की इंद्र अर्जुन की सहायता के लिए मांग रहे हैं, अपना कवच कुंडल काट कर दान दे दिया। कुंती को दान के रूप में इन्होंने अर्जुन को छोड़ कर शेष ४ पांडवों का जीवन दिया और इसी कारण युधिष्ठिर, भीम, नकुल एवं सहदेव को परास्त करने के बाद भी उनके प्राण नही लिए। इसके अतिरिक्त भी इनकी दानवीरता की कई कथायें प्रसिद्ध हैं जिनमें से एक श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण की दानवीरता की परीक्षा और दूसरा अंतिम समय में कर्ण के द्वारा दिया गया दान के विषय में है। अन्य भी अनेक पात्र हैं जिन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया है।
जय श्री राम
बहुत ही प्रेरक तथा ज्ञानवर्धक
Thanks Adesh Sir
Thanks Adesh Sir…keep motivating