एक बार एक सेठ ने पंडित जी को निमंत्रण किया पर पंडित जी का एकादशी का व्रत था तो पंडित जी नहीं जा सके पर पंडित जी ने अपने दो शिष्यो को सेठ के यहाँ भोजन के लिए भेज दिया..। पर जब दोनों शिष्य वापस लौटे तो उनमे एक शिष्य दुखी और दूसरा प्रसन्न था!
पंडित जी को देखकर आश्चर्य हुआ और पूछा बेटा क्यो दुखी हो — क्या सेठ ने भोजन मे अंतर कर दिया ? “नहीं गुरु जी” …क्या सेठ ने आसन मे अंतर कर दिया ? “नहीं गुरु जी”
क्या सेठ ने दच्छिना मे अंतर कर दिया ? “नहीं गुरु जी ,बराबर दच्छिना दी 2 रुपये मुझे और 2 रुपये दूसरे को” अब तो गुरु जी को और भी आश्चर्य हुआ और पूछा फिर क्या कारण है ? जो तुम दुखी हो ?
तब दुखी चेला बोला गुरु जी मै तो सोचता था सेठ बहुत बड़ा आदमी है कम से कम 10 रुपये दच्छिना देगा पर उसने 2 रुपये दिये इसलिए मै दुखी हूं !! अब दूसरे से पूछा तुम क्यो प्रसन्न हो ? तो दूसरा बोला गुरु जी मे जानता था सेठ बहुत कंजूस है आठ आने से ज्यादा दच्छिना नहीं देगा पर उसने 2 रुपए दे दिये तो मैं प्रसन्न हूं …!
बस यही हमारे मन का हाल है संसार मे घटनाए समान रूप से घटती है पर कोई उनही घटनाओ से सुख प्राप्त करता है कोई दुखी होता है ,पर असल मे न दुख है न सुख ये हमारे मन की स्थिति पर निर्भर है। इसलिए मन प्रभु चरणों मे लगाओ ,क्योकि – कामना पूरी न हो तो दुख और कामना पूरी हो जाये तो सुख पर यदि कोई कामना ही न हो तो आनंद …
जय श्रीराम

Bahut hi achhi story hai.
खुश, दुख ये सब हमारे मन की स्थिति ओर ही निर्भर करता है। कई बार खुश रहने की एक्टिंग करनी होती है। जय श्रीराम
सुख और दुख हमारे मन की अवस्था पर निर्भर करता है