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एक माँ की सुंदर सीख

#एक माँ की सुंदर सीख #ससुराल #घर-गृहस्थी #मनमुटाव #बाट या वजन #सम्मान और प्यार #सम्मान और माँ समान प्रेम #सहयोग #जय श्री राम

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“कभी मेरी भावनाओं का ध्यान नहीं रखते। जब देखो तब बस उन्हें माँ जी की ही चिंता रहती है। मैं भी अब वापस नहीं जाना चाहती वहाँ। रहे अपनी माँ के साथ और खूब सेवा करें।” ससुराल से लड़-झगड़कर मायके आयी नेहा बेटी की भुनभुनाहट विभाजी बड़ी देर से सुन रही थी। बात कुछ खास नहीं थी। वही घर-गृहस्थी के छोटे-मोटे मनमुटाव और खींचतान।

जब नेहा अपनी भड़ास निकालकर चुप हुई तब विभाजी ने बोलना शुरू किया। “हम जब सब्जी लेने जाते हैं तो जितनी सब्जी चाहिए उसके लिए क्या करते हैं?” उनके इस अजीबो गरीब सवाल पर नेहा अचकचा गयी- “तराजू में तुलवाते हैं, और क्या।”

“और सही तोल के लिए क्या करते हैं?” विभाजी ने फिर एक अटपटा प्रश्न किया। “एक पलड़े में सब्जी तो दूसरे पलड़े में जितनी चाहिए उतने का बाट या वजन रखते हैं।” नेहा झुंझलाकर बोली।

“अगर हमें एक किलो सब्जी चाहिए तो क्या दो सौ ग्राम का बाट रखने से मिल जाएगी?” विभाजी ने एक और प्रश्न किया बेटी से। “कैसी बचकानी बात कर रही हो माँ, दो सौ ग्राम के बाट रखने से भला एक किलो सब्जी कैसे तुलेगी?” नेहा अब सचमुच झुंझला गयी थी।

“तो फिर नेहा, मेरी बेटी सम्मान और प्यार के सौ ग्राम बाट रखकर तुम किलो भर की आशा कैसे कर सकती हो?” विभाजी गम्भीर स्वर में बोली।

“क्या मतलब….” नेहा हकबका गयी।

“मतलब ये की रिश्ते भी तराजू की तरह होते हैं। दोनो पलड़े संतुलित तभी होंगे जब वजन बराबर होगा” विभाजी बोली। नेहा मम्मी का मुँह देखने लगी चुप होकर।

“तुम सास को सम्मान और माँ समान प्रेम नहीं देती, पति को सहयोग नहीं करती और चाहती हो तो घर में सब तुम्हे पलकों पर बिठायें, खूब सम्मान दें, तो ऐसा तो नहीं हो सकता ना।”

विभाजी ने समझाया तो नेहा का चेहरा उतर गया।

“जितना प्रेम, सम्मान ससुराल वालों से चाहती हो पहले अपने पलड़े में उनके लिए उतना रखो। तभी रिश्तों का तराजू संतुलित रहेगा।”

नेहा की आँखे भर आयी। अपनी गलती वो समझ चुकी थी।

बच्चों को ताड़ना देना भी ज़रूरी है वरना  “चोर को भी जब फांसी की सज़ा मिलती है तो वो अपनी मां को ही दोष देता है कि पहली बार चोरी करने पर तुने मुझे थप्पड़ मार दिया होता तो आज मेरा ये हाल न होता”    “हर डाकू समाज को दोष देता है कि समाज ने मुझे प्रताड़ना दी इसलिये मैं डाकू बना”   परिवार तथा समाज को दोष देने से बेहतर है कि हम ये समझे कि हम सब अपनी राह स्वयं चुनते है,वो राह हमे किधर ले जाती है उसके लिये जिम्मेदारी भी ले। “पिता दारू पीता था” इसलिये उसके एक पुत्र ने दारू को हाथ नही लगाया और दूसरी ओर दूसरे बेटे ने यही कहकर खूब पी की मेरा तो पिता दारू पीता ही था

जय श्री राम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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