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गधे के साथ बहस का दंड

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गधे के साथ बहस का दंड

एक दिन जंगल में गधा घास चर रहा था। अचानक वह चिल्लाया—“घास नीली है!”

पास ही बाघ बैठा था। उसने आश्चर्य से कहा—“नहीं, घास तो हरी होती है, तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा?”

गधे ने जिद पकड़ ली—“नहीं, घास बिल्कुल नीली है। और अगर तुम मानते नहीं, तो हम राजा के पास चलते हैं।”

बाघ को लगा कि वह सही है और यह बात राजा तक ले जाना ठीक रहेगा। दोनों शेर के दरबार में पहुँचे।

गधे ने पहुँचते ही शोर मचाया—“महाराज! बाघ कह रहा है कि घास हरी है। असल में घास तो नीली है। उससे कहिए कि वह ग़लत है!”

शेर ने शांत स्वर में कहा—“हाँ, घास नीली है।”

गधा खुशी-खुशी उछलता हुआ चला गया।लेकिन बाघ अंदर तक हिल गया। उसने शेर से पूछा—“महाराज, आप जानते हैं घास हरी है। फिर आपने गधे की बात क्यों मान ली? और मुझे दंड क्यों दिया?”

शेर ने गहरी सांस लेते हुए कहा—“बाघ, मैं जानता हूँ कि घास हरी है। और तुम भी जानते हो। पर असली भूल यह नहीं कि तुमने घास के रंग पर बहस कीगलती यह है कि तुमने एक गधे के साथ बहस की।

और उससे भी बड़ी गलती यह कि तुम उस बहस को लेकर मेरे पास आ गए। इसलिए तुम्हें दंड दिया गया है—क्योंकि समझदार प्राणी को अपनी ऊर्जा मूर्खता पर खर्च नहीं करनी चाहिए।”

अक़्सर ज़िंदगी में सही या ग़लत से ज़्यादा यह मायने रखता है कि हम किससे बहस कर रहे हैं। कुछ लोग सच को समझने की क्षमता ही नहीं रखते, और उनसे तर्क करने का मतलब है अपनी ऊर्जा, शांति और समय व्यर्थ करना। बुद्धिमानी केवल सही ज्ञान रखने में नहीं, बल्कि यह जानने में भी है कि किन बातों और किन लोगों पर अपनी बुद्धि खर्च नहीं करनी चाहिए। हर बहस लड़ने लायक नहीं होती, और हर विवाद में कूदना समझदारी नहीं कहलाता। कई बार सामने वाला गलत नहीं, बल्कि तर्क के लायक ही नहीं होता है। ऐसे में चुप रह जाना ही सबसे बड़ा उत्तर होता है। अंततः मूर्ख से बहस करना खुद को दंडित करने जैसा है—और समझदार वही है जो इस दंड से खुद को बचा ले।

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
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