संगत का प्रभाव
दो दोस्त थे, एक सज्जन पुरुष, दूसरा जरा बदमाश किस्म का। सज्जन संत हो गए, प्रखर वक्ता के रूप में पूजे जाने लगे। दूसरा दोस्त इधर-उधर चोरी-चकारी हाथ सफाई कर अपना जीवनयापन करने लगा।
एक दिन संत अपने गृह नगर आए। प्रवचन के लिए विशालकाय पंडाल बना। बदमाश भी प्रवचन सुनने पहुंच गया। संत ने मित्र को देखते ही पहचान लिया। प्रवचन शुरू हुआ।
सभी मंत्रमुग्ध, तालियां गूंजने लगी। अंत में संत ने कहा कि ये शहर मेरी जन्मभूमि है, मैं चाहता हूं यहां दस लाख की लागत का एक अस्पताल बने और यह राशि इसी पंडाल से एकत्र करना है।
एक टोकनी आपके पास आयेगी, जिसकी जितनी श्रद्धा हो राशि डालते जाएं। संत के शातिर मित्र ने भी दान देने की भावना के साथ दस हजार निकाल कर रख लिए।
लोग मुक्तहस्त से दान देने लगे। दो लाख, पांच लाख, दस लाख, एकत्र हो गए। टोकनी अभी घूम ही रही थी।
संत के मित्र ने सोचा, जब इतने पैसे इक्कठे हो ही गए हैं तो मेरी छोटी सी राशि का क्या महत्व?….
उसने चुपचाप दस हजार की जगह हाथ में पांच हजार रख लिए।
टोकनी में पंद्रह लाख एकत्र हो गए तो उसने अब हाथ में पांच हजार की जगह एक हजार कर लिए। अचानक बिजली गुल हो गई तब तक बीस लाख एकत्र हो गए थे।
जब संत के मित्र के पास टोकनी आई तो उसने सोचा जब दान राशि टारगेट से डबल हो गई है तो अब एक हजार भी क्या डालना? उसने पैसे तुरंत जेब में रख लिए।
सभा समाप्त हो गई। मित्र भी संत के साथ ही उठ कर चलने लगा।
मित्र ने संत की तारीफ के पुल बांध दिए। वाह क्या प्रभाव है आपका। आपने दस लाख का कहा था, बीस लाख इक्ट्ठा हो गए।
गजब बोलते हैं आप। संत कुछ देर सुनते रहे फिर कहा पुछना तो नहीं चाहिए फिर भी पूछे बगैर रहा नहीं जा रहा, तुमने कितने रुपए दिए?
मित्र ने संत से कहा – सच बताऊं मित्र! मैने कुछ भी नहीं दिया। संत ने विनम्रता से कहा- फिर काहे का प्रभाव।
जब मैं अपने मित्र को ही प्रोत्साहित नहीं कर पाया।
मित्र ने कहा, ऐसा नहीं है। जब लाइट बंद हो गई थी तब मेरा मन हुआ था कि टोकनी में से एक-दो गड्डी गायब कर दूं। ये तो आपके प्रवचन का ही प्रभाव है कि मैने ऐसा कुछ नहीं किया।
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जय श्रीराम