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फ़र्ज़

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फ़र्ज

पिताजी के जाने के बाद आज पहली बार हम दोनों भाईयों में जम कर बहसबाजी हुई। फ़ोन पर ही उसे मैंने उसे खूब खरी-खरी सुना दी।

पुश्तैनी घर छोड़कर मैं कुछ किलोमीटर दूर इस सोसायटी में रहने आ गया था। उन तंग गलियों में रहना मुझे और मेरे बच्चों को कतई नहीं भाता था। हम दोनों पति पत्नी की अच्छी खासी तनख्वाह के बूते हमने ये बढ़िया से फ्लैट ले लिया। सीधे-साधे से हमारे पिताजी ने कोई वसीयत तो की नहीं पर उस पुश्तैनी घर पर मेरा भी तो बराबर का हक बनता है। छोटा भाई मना नहीं करता, लिखा-पढ़ी को भी राजी है पर दिक्कत अब ये है कि वो मेरे वाले हिस्से में कोचिंग सेंटर खोलना चाह रहा है। उसकी टीचर की नौकरी सात महीने पहले छूट चुकी है। दो महीने पहले ही आस-पास कहीं किराये का कमरा लेकर कोचिंग सेंटर खोला है। फोन पर कह रहा था, “आपके वाले हिस्से में कोचिंग सेंटर खोल लूँ तो मेरा किराया बच जाएगा।”

अब भला ये क्या बात हुई। चीज मेरी बरतेगा वो। ऊपर से मेरी धर्मपत्नी भी उसी की बात को सही ठहराते हुए बोली, “खोलने दो ना उसे कोचिंग सेंटर, छोटा भाई है आपका। मुश्किल में है कुछ सहारा ही हो जायेगा। आखिर बड़े भाई हो कुछ तो फ़र्ज बनता है कि नहीं।” अब क्या बोलता, अखबार मेज पर पटका, थैला उठाया और सब्जी लेने निकल आया। मंडी में घुसते ही महीने भर से नदारद अपना सब्जी वाला भईया नज़र आया। कई सालों से उससे ही सब्ज़ी लेता आ रहा हूँ। फटाफट वहीं जा पहुंचा।
“कहाँ ग़ायब हो गया था रे, महीना हो गया मुझे इधर-उधर से औने-पौने दाम में सब्जी लेते हुए।”

गाँव गया था साब जी। छोटे भाई की माली हालत खराब हो गई थी। गया और सब ठीक कर आया। घर में ही छोटी सी दुकान करा दी। बापू नहीं है तो क्या हुआ बड़ा भाई भी तो बाप समान होता है ना, साब जी।” ये सुनकर लगा जैसे मैं जम सा गया। थैला वहीं छोड़कर ऑटो लिया और उन जानी पहचानी तंग गलियों से होता हुआ अपने पुराने घर जा पहुँचा। बाहर खेलते हुए भाई के दोनों बच्चे मुझे देखते ही ”ताऊ जी, ताऊ जी” कहकर लिपट गए। आवाज सुनकर छोटा भी बाहर निकल आया। मैं उसे डाँटते हुए बोला, “क्यूँ रे, बहुत बड़ा हो गया है तू। मैंने जरा सा कुछ बोल क्या दिया, तुझ से तो पलट कर फ़ोन भी ना किया गया।”

“अपने जब साफ़-साफ़ मना कर दिया तो फिर फोन क्यूँ करता।”

“हाँ-हाँ जैसे तू तो मेरी हर बात मानता है।”

“क्यों नहीं मानता आप बोल कर तो देखो।”

“ये कुछ पैसे हैं रख ले, तेरी कोचिंग सेंटर के फर्नीचर की मरम्मत के लिए। यहाँ शिफ़्ट करने से पहले सब ठीक करा लियो।”

“मतलब मैं यहाँ अपना……….। आपका ये एहसान मैं………।” कहते-कहते उसका गला भर आया।

एहसान नहीं पगले, ये तो मेरा फ़र्ज है जो मैं भूल गया था।” और ये बोलते हुए मेरी आँखें नम थी..।

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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