“आस्था की अग्नि”
विंध्याचल पर्वत की तलहटी में बसा “श्रीवन” गाँव कभी हरियाली से भरा था। खेतों में सुनहरी फसलें लहराती थीं, पर अब वहाँ सूखा पड़ गया था। जलस्रोत सूख चुके थे, और गाँव के लोग निराश हो चुके थे।
फिर भी एक घर में हर सुबह आरव की आवाज़ गूंजती थी— “जय मां विंध्यवासिनी!” मंदिर की घंटियाँ बजतीं, पर बाकी गाँव वाले उसे देखकर नकारात्मकता में सिर हिलाते और कहते “कुछ नहीं होना”।
“आरव,” बूढ़े पंडित ने कहा, “देवी अब नहीं सुनतीं बेटा, शायद हमसे नाराज़ हैं।”
आरव ने मुस्कुराकर उत्तर दिया, “माँ कभी अपने बच्चों से नाराज़ नहीं होतीं, दादा। हम ही शायद उनसे दूर चले गए हैं।”
वह पूरा दिन मंदिर साफ करता, फूल चढ़ाता और प्रार्थना में डूबा रहता। उसकी मासूम आँखों में जो विश्वास था, वही जोश गाँव वालों की बुझी हुई आत्मा में हल्की सी लौ की तरह धधक उठता।
एक रात जब आकाश में बिजली चमक रही थी और गरजते बादल डर पैदा कर रहे थे, आरव अकेला मंदिर में बैठा था। उसने अपनी दोनों हथेलियाँ जोड़ लीं और आंखें बंद कर लीं।
“माँ, आज अगर मेरी भक्ति सच्ची है, तो इस गाँव की प्यास बुझा दीजिए,” उसने काँपती आवाज़ में कहा।
अचानक मंदिर की दीवारें हिलने लगीं। दीपक की लौ तेज होने लगी। बाहर तेज़ हवा चली और एक पल में आसमान से भीषण गर्जना के साथ बरसात शुरू हो गई।
लोग घरों से बाहर निकल आए, किसी ने बारिश में नृत्य किया, किसी ने मिट्टी को माथे से लगाया।
पंडित जी मंदिर पहुँचे, देखा कि आरव बेहोश पड़ा है, पर उसके चेहरे पर शांति थी। देवी की मूर्ति पर जल की बूँदें चमक रही थीं जैसे माँ खुद आशीर्वाद दे रही हों।
सुबह जब सूरज निकला, माटी की खुशबू फैली हुई थी, खेतों में जीवन लौट आया था। गाँववाले मंडप में इकट्ठे हुए और पंडित ने घोषणा की—“आज से इस गाँव का नाम ‘आस्थापुर’ होगा। इसे हमारी देवी ने पुनर्जीवित किया है, और आरव उस आस्था की अग्नि है जिसने सबके भीतर प्रकाश जलाया।”
गाँव में अब हर बच्चे को सिखाया जाता है—भक्ति अंधविश्वास नहीं, वह तो वह शक्ति है जो असंभव को संभव बना देती है।
“सच्ची भक्ति वह शक्ति है, जो अंधकार में भी प्रकाश जगा देती है और निराशा में भी जीवन भर देती है।”
“जब मन की दीपशिखा भक्ति से जलती है,
तो निराशा की रातें भी प्रभा में ढलती हैं।
सच्चा विश्वास वो दीप है, जो आँधियों में भी नहीं बुझता,
क्योंकि उसमें ईश्वर का प्रकाश बसता है।”
जय श्रीराम