श्राद्ध का प्रचलन कब और कैसे
ब्रह्माजी के पुत्र हुए महर्षि अत्रि,उन्हीं के वंश में भगवान दत्तात्रेयजी का आविर्भाव हुआ जिनके पुत्र महर्षि निमि और निमि के एक पुत्र हुआ श्रीमान् श्रीमान् बहुत सुन्दर था ; कठोर तपस्या के बाद उसकी मृत्यु होने पर महर्षि निमि को पुत्र शोक के कारण बहुत दु:ख हुआ। अपने पुत्र की उन्होंने शास्त्रविधि के अनुसार अशौच (सूतक) निवारण की सारी क्रियाएं कीं फिर चतुर्दशी के दिन उन्होंने श्राद्ध में दी जाने वाली सारी वस्तुएं एकत्रित कीं।
अमावस्या को जागने पर भी उनका मन पुत्र शोक से बहुत व्यथित था परन्तु उन्होंने अपना मन शोक से हटाया और उनके पुत्र को जो-जो भोज्य पदार्थ प्रिय थे और शास्त्रों में वर्णित पदार्थों से उन्होंने भोजन तैयार किया। महर्षि ने सात ब्राह्मणों को बुलाकर उनकी पूजा-प्रदक्षिणा कर उन्हें कुशासन पर बिठाया फिर उन सातों को एक ही साथ अलोना सावां परोसा । इसके बाद ब्राह्मणों के पैरों के नीचे आसनों पर कुश बिछा दिये और अपने सामने भी कुश बिछाकर पूरी सावधानी और पवित्रता के साथ अपने पुत्र का नाम और गोत्र का उच्चारण करके कुशों पर पिण्डदान किया।
श्राद्ध करने के बाद भी उन्हें बहुत संताप हो रहा था कि वेदो में पिता-पितामह आदि के श्राद्ध का विधान है मैंने पुत्र के निमित्त किया है मुनियों ने जो कार्य पहले कभी नहीं किया वह मैंने क्यों कर डाला। उन्होंने अपने वंश के प्रवर्तक महर्षि अत्रि का ध्यान किया तो महर्षि अत्रि वहां आ पहुंचे उन्होंने कहा—‘डरो मत ! तुमने ब्रह्माजी द्वारा श्राद्ध विधि का जो उपदेश किया गया है, उसी के अनुसार श्राद्ध किया है।
ब्रह्माजी के उत्पन्न किये हुए कुछ देवता ही पितरों के नाम से प्रसिद्ध हैं ; उन्हें ‘उष्णप’ कहते हैं।श्राद्ध में उनकी पूजा करने से श्राद्धकर्ता के पिता-पितामह आदि पितरों का नरक से उद्धार हो जाता है।
इस प्रकार सबसे पहले महर्षि निमि ने श्राद्ध का आरम्भ किया ! उसके बाद सभी महर्षि उनकी देखादेखी शास्त्र विधि के अनुसार पितृयज्ञ (श्राद्ध) करने लगे। ऋषि पिण्डदान करने के बाद तीर्थ के जल से पितरों का तर्पण भी करते थे।धीरे-धीरे चारों वर्णों के लोग श्राद्ध में देवताओं और पितरों को अन्न देने लगे।
लगातार श्राद्ध में भोजन करते-करते देवता और पितर पूरी तरह से तृप्त हो गये।अब वे उस अन्न को पचाने का प्रयत्न करने लगे अजीर्ण (indigestion) से उन्हें बहुत कष्ट होने लगा। सोम देवता को साथ लेकर देवता और पितर ब्रह्माजी के पास जाकर बोले— निरन्तर श्राद्ध का अन्न खाते-खाते हमें अजीर्ण हो गया है, इससे हमें बहुत कष्ट हो रहा है, हमें कष्ट से मुक्ति का उपाय बताइए।
ब्रह्माजी ने अग्निदेव से कोई उपाय बताने को कहा अग्निदेव ने कहा—‘देवताओ और पितरो ! अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन करेंगे मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा।
यह सुनकर सबकी चिन्ता मिट गयी; इसीलिए श्राद्ध में पहले अग्नि का भाग दिया जाता है,श्राद्ध में अग्नि का भोग लगाने के बाद पितरों के लिए पिण्डदान किया जाता है,उसे ब्रह्मराक्षस दूषित नहीं करते श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहाँ से भाग जाते हैं।
सबसे पहले पिता को, उनके बाद पितामह को और उनके बाद प्रपितामह को पिण्ड देना चाहिए—यही श्राद्ध की विधि है।प्रत्येक पिण्ड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री-मन्त्र का जप और सोमाय पितृमते स्वाहा का उच्चारण करना चाहिए ।
इस प्रकार मरे हुए मनुष्य अपने वंशजों द्वारा पिण्डदान पाकर प्रेतत्व के कष्ट से छुटकारा पाते हैं पितरों की भक्ति से मनुष्य को पुष्टि,आयु, संतति, सौभाग्य, समृद्धि, कामनापूर्ति, वाक् सिद्धि, विद्या और सभी सुखों की प्राप्ति होती है और समस्त सुख साधन श्राद्ध कर्ता को स्वयं ही सुलभ हो जाते है।
राम रक्षा स्तोत्र मंत्र
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जय श्रीराम