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तृप्ति की परीक्षा

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तृप्ति की परीक्षा

प्राचीनकाल में एक धर्मनिष्ठ राजा के समीप एक विशेष बकरा था। राजा ने एक विचित्र घोषणा की- “जो कोई इस बकरे को वन में ले जाकर तृप्त कर दे, मैं अपना आधा राज्य उसे प्रदान करूँगा। परंतु उसकी तृप्ति की परीक्षा स्वयं मैं करूँगा।”

बहुसंख्य जनों ने इसे सहज कार्य मानकर प्रयास किया। एक पुरुष बकरे को वन में ले गया, दिवस भर उसे घास चराता रहा। संध्याकाल में, यह सोचकर कि बकरा निश्चय ही तृप्त हो गया होगा, वह उसे दरबार में ले आया।

राजा ने बकरे के सम्मुख थोड़ी ताजा घास रखी- और बकरा तत्क्षण उसे चरने लगा। राजा ने कहा- यदि बकरा तृप्त होता, तो क्या वह अब भी घास को देख चरने लगता?” अनेक जनों ने प्रयास किया, किंतु परिणाम एक ही रहा। बकरे को कितना भी चराया जाए, दरबार में वह पुनः भूख प्रकट करता।

इस दृश्य को देखकर एक विद्वान् ब्राह्मण ने विचार किया कि, राजाज्ञा केवल चराने की नहीं, तृप्ति सिद्ध करने की है; इसमें गूढ़ संकेत है। केवल आहार नहीं, व्यवहार को भी देखना होगा।”

वह ब्राह्मण बकरे को वन में ले गया। जब भी बकरा घास की ओर अग्रसर होता, वह लकड़ी से उसे परावृत्त करता। कई बार ऐसा हुआ। अंततः बकरे के मन में यह बात दृढ़ हो गयी कि, यदि घास खाने जाऊँगा, तो पीड़ा होगी। अतः न खाऊँ।”

संध्या को ब्राह्मण बकरे सहित राजसभा में उपस्थित हुआ और बोला– “हे राजन्! बकरं भर्य तर्पितं मया- अब यह घास नहीं खायेगा।” राजा ने पुनः परीक्षा ली- पर इस बार बकरे ने घास को न देखा, न सूंघा। उसे भोजन की नहीं, दण्ड की स्मृति थी।

अब गहराई में उतरें- यह बकरा वस्तुतः हमारा चपल मन है। ब्राह्मण आत्मा है- राजा स्वयं परमात्मा। मन को मारना नहीं, विवेक की दण्डनी से नियंत्रित करना ही आवश्यक है। दमन नहीं, अनुशासन ही साधना का मूल है। जब तक मन इन्द्रियानुकूल है, तब तक वह बारंबार “भोग” की ओर दौड़ता है; परन्तु जब उसे विवेक, संयम, और सत् संस्कारों की छड़ी से प्रशिक्षित किया जाता है, तब वह स्थिर होता है।

तात्त्विक बोध-मन यदि वश में हो जाए, तो समस्त जीवन सुस्थिर हो जाता है। मन आत्मा का सारथी है, इन्द्रियाँ अश्व हैं- यदि मन विक्षिप्त हो तो रथ खाई में गिरेगा; यदि वश में हो तो वही रथ मोक्षमार्ग पर प्रवाहित होगा।

“मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।”मन ही बन्धन का कारण है, और वही मोक्ष का भी। अतः-“प्रत्यहं विवेकदण्डेन मनः संयम्य साध्यं जीवनं कुर्यात्।”

प्रतिदिन विवेक की छड़ी से मन को संयमित करें, तब जीवन साध्य होता है।

समापन भाव-कमाई बड़ी हो या छोटी- रोटी का आकार सबके घरों में एक सा ही होता है।यदि आप किसी को “छोटा” देख रहे हैं,तो या तो आप बहुत दूर खड़े हैं,या अहंकार की ऊँचाई पर।

आत्मवशं मनो यः कुर्यात्,तं न कश्चन जेतुम् अर्हति। जये मनसि स्थिरता,तत्रैव मुक्तिः प्रतिष्ठिता।।

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
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