ज़िंदगी के धक्के
मान लीजिए कि आप चाय का कप हाथ में लिए खड़े हैं और कोई आपको धक्का दे देता है, तो आपके कप से चाय छलक जाती है…..अब अगर आप से पूछा जाए कि आप के कप से चाय क्यों छलकी?….तो आप का उत्तर होगा “क्योंकि उसने ने मुझे धक्का दिया”
गलत उत्तर..सही उत्तर ये है कि आपके कप में चाय थी इसलिए छलकी..! आप के कप से वही छलकेगा जो उसमें है।
इसी तरह जब ज़िंदगी में हमें धक्के लगते हैं, बातों से, व्यवहार से, विचार से और स्वाभाविक प्रक्रिया से, तो उस समय हमारी वास्तविकता ही बाहर छलकती है।
आप का सच उस समय तक सामने नहीं आता, जब तक आपको धक्का न लगे, तो देखना ये है कि जब आपको धक्का लगा तो क्या छलका?….
धैर्य, मौन, कृतज्ञता, स्वाभिमान, निश्चिंतता, मानवता, गरिमा, अपनत्व, सहानुभूति, संवेदना इत्यादि..या फिर, क्रोध, कड़वाहट, पागलपन, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, अराजकता, असभ्यता, असंवेदनशीलता इत्यादि..
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जय श्रीराम