हनुमानजी ऋषि आश्रम में
हनुमान जी जब लंका दहन करके लौट रहे थे, तब उन्हें समुद्रोलंघन, सीतान्वेषण, रावण मद-मर्दन एवं लंका दहन आदि कार्यों का कुछ गर्व हो गया। दयालु भगवान इसे ताड़ गए । हनुमान जी घोर गर्जना करते हुए जा ही रहे थे कि रास्ते में उन्हें बड़ी प्यास लगी। महेंद्राचल पर उन्होंने दृष्टि दौड़ाई तो उनकी दृष्टि एक मुनि पर गई, जो शांत बैठे हुए थे ।
उनके पास जाकर हनुमान जी ने कहा – “मुनिवर! मैं श्रीरामचंद्र का सीतान्वेषण का कार्य करके लौट रहा हूं, मुझे बड़ी प्यास लगी है, थोडा जल दीजिए या किसी जलाशय का पता बताइए ।”……मुनि ने उन्हें तर्जनी उंगली से एक जलाशय की ओर इशारा किया । हनुमान जी सीता की दी हुई चूड़ामणि, मुद्रिका और ब्रह्मा जी का दिया हुआ पत्र – यह सब मुनि के आगे रखकर जल पीने चले गए ।
इतने में एक दूसरा बंदर आया, उसने इन सभी वस्तुओं को उठाकर मुनि के कमंडलु में डाल दिया । तब तक हनुमान जी भी जल पीकर लौट आए । अपनी वस्तुओं को वहां न देखकर उन्होंने मुनि से पूछा। मुनि ने भौहों के इशारे से उन्हें कमंडलु की ओर इशारा किया । हनुमान जी ने चुपचाप जाकर कमंडलु में देखा तो ठीक उसी प्रकार की रामनाम अंकित हजारों मुद्रिकाएं दिखाई पड़ीं। अब वे बहुत घबराए। उन्होंने पूछा – “ये सब मुद्रिकाएं आपको कहां से मिलीं तथा इनमें मेरी मुद्रिका कौन-सी है?”
मुनि ने उत्तर दिया – “जब-जब श्रीरामावतार होता है और सीता हरण के पश्चात हनुमान जी पता लगाकर लौटते हैं, तब शोध मुद्रिका यहीं छोड़ जाते हैं । वे ही सब मुद्रिकाएं इसमें पड़ी हैं ।” अब तो हनुमान जी का गर्व गल गया । उन्होंने पूछा – “मुने! कितने राघव यहां आए हैं?”….
मुनि ने कहा – “यह तो मुद्रिकाओं की गणना से ही पता चल सकता है।”
जब हनुमान जी ने देखा तो उन मुद्रिकाओं का कोई अंत नहीं था। उन्होंने सोचा – ‘भला मुझ जैसे कितने लोगों ने ऐसे कार्य कर रखे हैं, इसमें मेरी क्या गणना ।’ फिर वे वहां से चलकर अंगदादि से मिलकर प्रभु के पास आए और अत्यंत डरते हुए प्रभु श्रीराम से कहा – “प्रभो! मुझसे एक बहुत बड़ा अपराध हो गया है ।” और फिर सारा वृत्तांत सुना दिया ।
यह सुनकर प्रभु श्रीराम ने कहा – “भद्र! मुनि रूप में तुम्हारे कल्याण के लिए मैंने ही वह कौतुक रचा था । देखो, वह मुद्रिका तो मेरी उंगली में ही लगी है ।”
अब हनुमान जी का गर्व सर्वथा नष्ट हो गया । उन्होंने प्रभु के विष्णु स्वरूप पर विश्वास किया और बड़ी ही श्रद्धा से उनके चरणों पर गिर गए और चिरकाल तक लेटे रहे ।
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जय श्रीराम