ससुराल प्यार भरा आशियाना
जिस दिन मैं अपने ससुराल आई, दिल में हज़ारों डर थे। नई जगह, नए लोग… और सबसे बड़ा डर था मेरी सास प्रेमलता जी को लेकर। सोच रही थी, अब सुबह 5 बजे उठना होगा, रोटियाँ बेलनी होंगी, गलती हुई तो डाँट पड़ेगी।
शादी के अगले ही दिन उन्होंने बहुत प्यार से मेरा हाथ पकड़ा और कहा, “आओ बेटा, रसोई दिखा दूं।”
मैं थोड़ी सहम गई… लेकिन जैसे ही हम रसोई में पहुँचीं, उन्होंने गैस जलाने के बजाय सबसे पहले रसोई की खिड़की खोल दी। एक ताज़ा हवा का झोंका आया और उन्होंने जो कहा, वो मैं ज़िंदगी भर नहीं भूल सकती।
उन्होंने मुस्कुराकर कहा, “बेटा, खाना तो तुझे धीरे-धीरे आ ही जाएगा। इस घर में परफेक्शन नहीं, प्यार चाहिए। रोटियाँ गोल ना भी बनें तो चलेगा, पर रिश्ते दिल से बनने चाहिए।”
मैं उन्हें देखती रह गई… फिर उन्होंने कहा, “हर नई बहू से गलतियाँ होती हैं, मुझसे भी हुई थीं। लेकिन अगर हम एक-दूसरे को समझें, तो ये घर भी एक परिवार बन जाएगा।”
मेरी आँखें भर आईं। डर जैसे कहीं गायब हो गया। फिर उन्होंने कहा, “आज मैं चाय बना रही हूँ, तू बस बैठ जा। कल से धीरे-धीरे सब सीख जाना… लेकिन हमेशा ध्यान रखना—खाना चाहे जैसा भी बने, दिल साफ होना चाहिए।”
उस दिन मुझे पहली बार लगा किअगर सास माँ जैसी हो, तो ससुराल कभी पराया नहीं लगता… बल्कि एक प्यार से भरा आशियाना बन जाता है।
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जय श्रीराम