रामायण समाज के लिये है, गीता व्यक्ति के लिये है
प्रभु राम को वियोग में रुदन के लिये अरण्य मिला जहाँ वो फूट फूट कर रो सकते थे और रोये भी क्योंकि एक ही पत्नी थी। श्रीकृष्ण भगवान तो राधा के वियोग में रो भी नहीं सकते थे क्योंकि एक तो राजमहल मिला और ऊपर से इतनी रानियाँ। श्रीकृष्ण ने अपने दुःख को राजनीति में छिपा लिया। जब व्यक्ति अपना दुःख प्रकट नहीं करता तो हृदय कठोर कर लेता है।
राम जटायु, शबरी, सुग्रीव सबके लिये द्रवित हैं। श्रीकृष्ण किसी के लिये द्रवित नहीं होते। द्रवित होने का अर्थ ही नहीं है क्योंकि तब उस वियोग को भी प्रकट करना पड़ेगा। वियोग प्रकट हो जाता तो महाभारत कैसे होता क्योंकि तब गीता का ज्ञान भी नहीं दिया जाता।
राम व्यष्टि से समष्टि को साधते हैं। श्रीकृष्ण समष्टि से व्यष्टि को साधते हैं। रामायण समाज के लिये है, गीता व्यक्ति के लिये है। जबकि श्रीराम अपनी पत्नी के लिये युद्ध करते हैं और श्रीकृष्ण धर्म का राज्य स्थापित करने के लिये युद्ध करवाते हैं, उसके पश्चात भी निष्कर्ष परिवर्तित हो जाता है।
हनुमान जी ने लक्ष्मण जी को राम जी की गोद में लिटा दिया। राम जी रोने लगे। बहुत रोए, बहुत रोए। राम जी कहने लगे, लक्ष्मण तुम तो मेरे एक इशारे पर ही दौड़े चले आते थे, आज मैं पुकार रहा हूँ, तुम सुनते क्यों नहीं? उठते क्यों नहीं? तुम तो सदा मेरे पीछे चलते थे, मृत्यु के द्वार पर मुझसे पहले क्यों चल दिए? सब वानर भालू तो जंगल पहाड़ पर चले जाएँगे, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा। तुमने मुझे वन के मार्ग पर अकेले नहीं आने दिया, मैं तुम्हें यम के मार्ग पर अकेला कैसे जाने दूँ?
सुग्रीव पास सरक आया। राम जी कहते हैं, सुग्रीव! मुझ पर एक उपकार कर दोगे?
“इतना करना हम दोनों की, छातियाँ मिला देना भाई।
एक कफन में दोनों को, कस के लिपटा देना भाई॥”
जैसे कोई हाथ के बिना रह सकता है, आँख के बिना रह सकता है, पर प्राण के बिना नहीं रह सकता। लक्ष्मण जी राम जी के प्राण हैं, राम जी लक्ष्मण जी के बिना नहीं रह सकते।
देखो, भगवान अयोध्या के बिना रह लेते हैं, पिता जी के बिना भी रह लेते हैं, भरत जी के बिना दुखी तो रहते हैं पर रह लेते हैं, सीता जी का वियोग हुआ तो भगवान रोए तो बहुत पर रहते रहे, आश्चर्य की बात है! वे सबके बिना रह लेते हैं, पर लक्ष्मण जी के बिना नहीं रह सकते।
ऐसे भक्त बहुत हैं जो भगवान के बिना नहीं रह सकते, पर धन्य हैं वे भक्त जिनके बिना भगवान नहीं रह सकते।
पर इस प्रसंग में आध्यात्मिक संकेत भी है, लोकेशानन्द उसकी ओर इशारा
करता है कि “लक्ष्ये मनः यस्य सः लक्ष्मणः।”
जिसके पास लक्ष्मण नहीं है, जिनका मन लक्ष्य पर टिका हुआ नहीं है, भगवान से लगा हुआ नहीं है, जिनके मन में संसार ही बसा हुआ है, उनके पास भगवान किस प्रकार रह सकते हैं? क्योंकि भगवान तो लक्ष्मण जी के बिना रह ही नहीं सकते।
जय श्री राम
