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श्री बुद्ध पूर्णिमा

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श्री बुद्ध पूर्णिमा

भगवान बुद्ध नौवें अवतार थे। उन्होंने जनहित में बुद्धि, धर्म और संघ को प्रधानता दी। तप और पुरुषार्थ किया। उच्च आत्माओं का समुदाय समेट, उसे प्रशिक्षित करने और आलोक वितरण के लिए विश्व के कोने-कोने में भेजा। इसी से उस समय पृथ्वी मंगलमयी बन पाई। रोक-शोक व वृद्धता से जर्जर विश्व को देखकर जिनका हृदय करुणा से द्रवित हो गया था।

भगवान बुद्ध का धर्म चक्र प्रवर्तन साधन प्रधान नहीं, प्रवाह साधन था। साधनों से प्रवाह उत्पन्न नहीं किया था। प्रवाह ने साधन खड़े कर दिए थे। हर्षवर्धन, अशोक आदि राजाओं ने मिलकर बौद्ध धर्म के प्रचारक नियुक्त नहीं किये थे। बुद्ध की शिक्षाओं से प्रेरित होकर लाखों सुविज्ञ, सुयोग्य और सुसंपन्न व्यक्ति अपनी आत्माहुति देते हुए चीवरधारी धर्म सैनिकों की पंक्ति में अनायास ही आ खड़े हुए थे। धर्म प्रवर्तकों में से प्रत्येक ने अपने-अपने समय में अपने-अपने ढंग से वातावरण को अनुकूल करके अपने समर्थन की भाव तरंगें उत्पन्न की हैं और उस प्रवाह में असंख्य व्यक्ति बहते चले गए हैं। पराधीनता के पाश से मुक्त होने वाले देशों में भी आजादी की लहर बही और उसके कारण से कई भक्ति आंदोलन फूटे तथा अपने लक्ष्य पर पहुंच कर रहे। अदृश्य और सूक्ष्म वातावरण के तथ्य तथा रहस्य को जो लोग जानते हैं, वे समझते हैं कि इस प्रकार के प्रवाह कितने सामर्थ्यवान होते हैं। उनकी तूफानी शक्ति की तुलना संसार की और किसी शक्ति से नहीं हो सकती।

बुद्धवतार बुद्धिवाद के तर्क और औचित्य का समर्थन करने जन्मे। यज्ञों के नाम पर होने वाली पशु हिंसा से वे बहुत दुखी थे। वे संसारभर में बुद्धिवाद का विस्तार करते रहे। इसमें इन्हें उत्तम आचरण के कारण सफलता भी मिली। बोधिसत्व अपने पुण्य प्रभाव से वंश परंपरानुसार प्राप्त राज्य का पालन कर रहे थे। वह जितेंद्रय तथा प्रजाओं के हित के कार्य में दत्तचित्त थे। वे स्वयं सदाचरण में आसक्त थे तथा प्रजा भी उनका अनुसरण करती थीं।

एक बार उनके राज्य में अनावृष्टि के कारण व्याकुलता फैल गई। कुल पुरोहितों, वृद्ध ब्राह्मणों और बुद्धिमान मंत्रियों से इसका निवारण का उपाय पूछने पर उन्होंने इसका उपाय वेद विहित यज्ञ विधि सुझाया। परंतु इसमें सैकड़ों निर्दोष प्राणियों की बलि चढ़ानी पड़ेगी, यह जानकर उन्होंने इसकी उपेक्षा कर दी।*l

ये सब विवेकपूर्ण बातें सोचकर बोधिसत्व ने निर्णय लिया कि कैसे निर्दोष प्राणियों की रक्षा की जाए। सारे गांवों में नगरों में डंके की चोट पर घोषणा की गई कि जो व्यक्ति दुराचारी, दुर्विनीत होगा, शील, सदाचरण के रास्ते पर नहीं चलेगा, राजाज्ञा की अवहेलना करेगा, पशु के स्थान पर उनकी भूमिका तय की जायेगी। यह आज्ञा सभी सामंतों के लिए भी थी। दुराचारी पुरुषों की खोज में सावधान राजपुरुषों को चारों तरफ छोड़ा गया। देखते-देखते सारी बुराइयां जाती रहीं। जनता के धर्म परायण होने से ऋतुओं की विषमता भी दूर हुईं। पृथ्वी नाना प्रकार फसलों से परिपूर्ण हो गईं। पृथ्वी से रोग-शोक जैसे संपात दूर हुए। लोगों को पशु हिंसा का दोष अनुभव हुआ। धर्माचरण से प्रजाओं का कल्याण हुआ।

भारत माता की जय

जय श्रीराम

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Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
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