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संग-का-प्रभाव

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संग-का-प्रभाव

एक बार एक सैनिक घोड़े पर सवार होकर शिकार के लिए जंगल जा रहा था। रास्ते में डाकुओं की एक बस्ती पड़ी । एक घर के दरवाजे के बाहर लटके पिंजरे में बैठा एक तोता चिल्ला उठा- “भागो, पकड़ लो, इसे मार डालो, इसका घोड़ा और माल-असबाब सब छीन लो।

तोते की आवाज से सिपाही सतर्क हो गया| उसने अपन घोड़ा दौड़ा दिया और घने जंगल में रहने वाले एक साधु की कुटिया के पास पहुँच गया| इस कुटिया के बाहर भी एक पिंजरा लटका था। पिंजरे में बैठी एक तोते ने कहा- “भाई आओ, थक गए हो, विश्राम करो, तुम्हारा स्वागत है ।”

साधु महाराज आवाज सुनकर अपनी कुटिया से बाहर आए और उन्होंने उस थके हुए सिपाही की आगुआनी की| सिपाही ने पूछा- “महाराज, मेरे मन में एक बड़ा प्रश्न है| क्या उसका उत्तर आप दे सकेंगे? अभी मैं थोड़ी देर पहले डाकुओं की बस्ती से निकला, तब वहाँ के एक तोते ने मुझे पकड़ने और लूटने की बात कही; परंतु आपकी कुटिया के तोते ने मीठी-मीठी बात करके मेरा स्वागत किया| महाराज, एक ही जाति के दो पंछियों में यह अंतर कैसा?”

यह सुनकर साधु से पहले साधु का तोता बोल उठा- “अहं मुनीनां वचनं श्रृणोंमि, श्रृणोत्मयं यद् यवनस्य वाक्यम| न चास्य दोषो न च मे गुणों वा, संसर्गजा दोषगुणाः भवन्ति| ।”

मैं साधुओं की वाणी सुनता हूँ, वह तोता क्रूर डाकुओं की बात सुनता है| न उसमें कोई बुराई है और न मेरे में कोई अच्छाई है । अच्छी या बुरी संगत से ही गुण दोष पैदा होते हैं । इसीलिए हर मनुष्य को अच्छी संगति में ही बैठना चाहिए ।

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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