सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र
राजा हरिश्चंद्र की कथा बड़ी कारुणिक, प्रेरणास्पद और लंबी है इसे हम संक्षेप में आपको बता रहे हैं। राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा थे जो सत्यव्रत के पुत्र थे। इन्ही के कुल में भगवान श्री राम का जन्म हुआ और रघुकुल की रीत चली प्राण जाये पर वचन ना जाए।
एक समय की बात है की इनके कुलगुरु वशिष्ठ जी, विश्वामित्र जी एवं सभी सेवी देवताओं की एक सभा हुई सभा मे सभी देवता ऋषि मुनि इत्यादि चर्चा कर रहे थे की पृथ्वी पर सबसे सत्यनिष्ठ व दानवीर राजा कौन है तभी गुरु वशिष्ठ ने राजा हरिश्चंद्र का नाम लिया और बताया पूरी पृथ्वी पर इस समय उनसे बड़ा सत्यनिष्ठ धर्मात्मा दानवीर राजा कोई नही है।
उनके सत्य के तेज (प्रकाश) के आगे सूर्य का प्रकाश भी फीका लगता है। कई बार उनके सत्य की परीक्षा ली गयी किन्तु कोई भी उनके सत्य को डिगा नही पाया। वह अपने सत्य सिद्धांत धर्म पर अडिग रहे।
विश्वामित्र जी ने कहा की आचार्य मेंरी नजर में पृथ्वी पर सबसे बड़ा दानवीर होना अब संभव नहीं है और ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी के सत्य धर्म को डिगाया ही ना जा सके। मूक भाषा में सभी देवता ने भी हामी भरी किन्तु आचार्य वशिष्ठ ने कहा यही सत्य है अगर कोई भी चाहे तो राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा ले सकता है।
विश्वमित्र जी पूर्व में एक क्षत्रिय राजा थे ये अपना राज्य त्याग कर वन में तपस्या को गए थे और बाद में ऋषि हुए लेकिन क्षत्रिय का तेज (अहंकार) इनके अंदर था। इन्होंने उस सभा मे तो कुछ नही कहा लेकिन मन मे संकल्प कर लिया में हरिश्चंद्र के सत्य को डिगा के दिखाऊंगा। तभी विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की कठोर परीक्षा लेने की सोची।
विश्वामित्र अपनी योगमाया के द्वारा राजा हरिश्चंद्र से एक तपस्वी ब्राह्मण के रुप में जंगल में मिले राजा हरिश्चंद्र ने उन्हें प्रणाम किया और कहा की है ब्राह्मण देव में राजा हरिश्चंद्र हूँ आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।
विश्वामित्र जी ने कहा की राजन में एक यज्ञ की तैयारी कर रहा हूँ मुझे उसमे धन की आवश्यकता होगी और उसके लिये तुम्हारी मदद की आवश्यकता होगी। तभी राजा हरिश्चंद्र ने वचन दिया है ब्राह्मण देव मेरे राजमहल के द्वार सदैव आपके लिए खुले है आप अवश्य पधारे यह कह कर राजा अपने महल को लौट गये।
कुछ समय पश्चात विश्वामित्र जी ब्राह्मण वेष में राजा हरिश्चंद्र के महल पहुंचे और राजा को अपना वचन याद दिलाया। राजा हरिश्चंद्र ने कहा ब्राह्मण देव आज्ञा करे। विश्वामित्र जी ने कहा राजन मुझे आपका पूरा राज्य, धन, ऎश्वर्य चाहिए।
सभी महल के पदाधिकारी सोचने लगे यह मांग पूरी करना सम्भव नहीं है तभी राजा हरिश्चंद्र ने कहा ऋषिवर में आपको अपनी पूरी संपत्ति, राज्य सौंपता हूँ। तभी विश्वामित्र जी ने कहा राजन में तुम्हारे दान कर्म से अत्यधिक प्रश्नन हूँ किन्तु शास्त्रों के अनुसार दान धर्म के पश्चात दक्षिणा देनी आवश्यक होती है।
राजा हरिश्चंद्र ने कहा आवश्य ब्राह्मण देव बताइये आप को कितनी दक्षिणा चाहिए विश्वामित्र जी ने कहा मुझे 1100 स्वर्ण मुद्रा चाहिये , तभी राजा ने अपने मंत्री को आदेश दिया ब्राह्मण देव को तत्काल 1100 स्वर्ण मुद्रा दक्षिणा स्वरुप दी जाये।
विश्वामित्र जी ने कहा की राजन आप अपनी सम्पति मुझे पहले ही दान कर चुके है और दान दी गयी वस्तु से दान नहीं किया जा सकता है। राजा हरिश्चंद्र ने कहा ब्राह्मण देव मुझे थोड़ा समय दीजिये में आपको 1100 स्वर्ण मुद्राओ की दक्षिणा अवश्य दूंगा।
राजा हरिश्चंद्र अयोध्या से अपनी पत्नी तारा और पुत्र रोहित को लेकर पैदल खाली हाथ काशी को निकल गए राजा हरिश्चंद्र चक्रवर्ती राजा थे , चक्रवती राजा पूरी पृथ्वी का राजा होता है पूरी पृथ्वी तो वह विश्वामित्र जी को दान कर चुके थे… किन्तु शास्त्र अनुसार काशी भगवान शिव के त्रिशुल पर बसी है, प्रलय काल मे भी जब पूरी पृथ्वी जल मग्न हो जाती है तो काशी शेष बचती है।
इस लिए राजा हरिशचंद्र काशी पहुँचे और वहाँ उन्होंने स्वयं को एक डोम, चंडाल (श्मशान का प्रहरी) के यहां 500 स्वर्ण मुद्राओ में तथा अपनी पत्नी तारा और पुत्र रोहित को एक ब्राह्मण के यंहा 600 स्वर्ण मुद्राओ में बेचकर विश्वामित्र जी को उनकी दक्षिणा दी।
उस चांडाल ने राजा हरिश्चंद्र को अपना काम सौंप दिया जो भी मुर्दा यहाँ जलने को आयेगा उनके परिवार से कर लेना है, बिना कर लिये यहाँ कोई अंतिम संस्कार नही होगा।
समय कटता गया वर्षो बीत गये इधर महारानी तारा अपने पुत्र रोहित के साथ उस व्रद्ध ब्राह्मण की सेवा करते हुए समय बिता रही थी चक्रवती नरेश की पत्नी ब्राह्मण के चौका चूल्हा बर्तन साफ सफाई करती ओर रोहित ब्राह्मण के लिए बगिया से पुष्प चयन कर के लाता था।
एक दिन बगिया में एक सर्प छिपकर बैठा था, सब विश्वमित्र जी की माया थी जैसे ही रोहित ने पुष्प तोड़ना चाहा इस सर्प ने रोहित के हाथ पर डस लिया, सर्प के काटने से रोहित की मृत्यु हो गयी तो पत्नी तारा रोते बिलखते अपने पुत्र को शमशान में अन्तिम क्रिया के लिये ले गयी।
जहाँ पर राजा हरिश्चंद्र डोम चंडाल के यहाँ नौकरी कर रहे थे और शमशान का कर लेकर उस डोम को देते थे।उन्होने रानी तारा से कहा पहले कर दीजिए , मेरे स्वामी ने यहाँ कर के बिना किसी का भी अंतिम संस्कार करने से मना किया है।
रानी तारा ने कहा ये आप का भी पुत्र है इसके लिए भी आपको कर चाहिए आप मेरी हालत देख रहे हैं मेरे पास इस एक धोती के अलावा और कुछ भी नही है और जब तारा ने देख लिया ये अपने धर्म से नही डिगेंगे, बिना कर लिए पुत्र का भी अंतिम संस्कार नही करेंगे तो अपनी आधी साडी को फाड़कर कर के रूप में देना चाह रही थी।
उसी समय वहाँ सभी देवी देवता ऋषि मुनि वशिष्ठ जी सहित विश्वामित्र जी प्रगट हुए और राजा हरिश्चंद्र से कहा में केवल आपके सत्य की परीक्षा ले रहा था जिसमे आप उत्तरीण (पास) हो गये और उनको उनकी धन, सम्पति, वैभव, राजपाठ पुनः लौटा दिया और देवताओ के आशीर्वाद से रोहित को पुनर्जीवन दिया। और कहा राजन अब आप हमसे कोई वरदान मांगिये, राजा हरिश्चंद्र ने कहा ऋषिवर मुझे कुछ नही चाहिए केवल इतनी विनती है इतनी कठोर परीक्षा अब किसी और कि ना लीजियेगा।
सत्य की परीक्षा नही ली जाती उसको प्रणाम किया जाता है, किसी के धर्म को डिगाया नही जाता उसको बढ़ाने में उसका सहयोग किया जाता है। इस प्रकार राजा हरिश्चंद्र विश्व के इतिहास के सबसे महान दानवीर की श्रेणी में इंगित हुए।
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जय श्रीराम
