घर का अधिष्ठाता
परिवार में जब अपने स्वार्थ का भ्रष्टाचार बढ़ता है और लोग कर्तव्य की आध्यात्मिक भावना को भुला देते हैं तभी गृहस्थ की दुर्दशा होती है ! कितने कृतघ्न होंगे वे लोग जो अपने स्वार्थ के लिए परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्व भुलाकर अपना चूल्हा चौका अलग रखने में अपनी बुद्धिमानी समझते हैं ।
किसी ने ऐसे कुटिल व्यक्तियों को कभी फलते-फूलते भी नहीं देखा होगा जो फूट के बीज बोकर सारी पारिवारिक व्यवस्था को तहस-नहस कर डालते हैं ! पिता अपने पुत्र के लिए सारे जीवन भर क्या नहीं करता ? श्रम करता है,जब वह खुद सो रहा होता है तब गए रात उठकर खेतों में जाता है,हल चलाता है,मजदूरी करता है,नौकरी बजाता है ।क्या वह सब कुछ अपने लिए करता है ? नहीं ।
एक व्यक्ति का पेट पालने के लिए तो चार पाँच रुपये मजदूरी ही काफी है,दिनभर श्रम करने से क्या लाभ ? पर बेचारा बाप सोचता है कि बच्चे के लिए दूध की व्यवस्था करनी है,दवा लानी है,कपड़े सिलाने हैं,फीस देनी है,पुस्तकें लाना है और उसके भावी जीवन की सुख सुविधा के लिए कुछ छोड़ भी जाना है । जब तक शक्तियाँ काम देती है कोई कसर नहीं उठा रखता !
अपने पेट को गौण मानकर बेटे के लिए आजीवन अनवरत श्रम करने का साहस कोई बाप ही कर सकता है ! पाल पोस कर बड़ा कर दिया, शिक्षा दीक्षा पूरी कराई,विवाह शादी करा दी,धंधा लग गया ।पिता से पुत्र की कमाई बढ़ गई,उसके अपने बेटे हो गए,स्त्री की आकांक्षाएँ बढ़ी,बेटे ने बाप के सारे उपकार पर पानी फेर दिया !
कोई न कोई बहाना बनाकर बाप से अलग हो गया! हाय री तृष्णा ! तेरे लिए इतना सब कुछ किया और तू उसकी वृद्धावस्था का सहारा भी न बन सका। उस कृतघ्नता से बढ़कर इस संसार में और कौन सा पाप हो सकता है ? अपने स्वार्थ,भोग लिप्सा,स्वेच्छाचारी के लिए बाप को ठुकरा देने वालों को “पामर” न कहा जाए तो और कौन सा संबोधन उचित हो सकता है ?
पिता परिवार का अधिष्ठाता,आदेशकर्ता और संरक्षक होता है,उसकी जिम्मेदारियाँ बढ़ी होती है।सबकी देख-रेख,सब के प्रति न्याय,सब की सुरक्षा करने वाला पिता होता है । क्या उसके प्रति उपेक्षा का भाव मानवीय हो सकता है? कोई राक्षस वृत्ति का मनुष्य ही कर सकता है जो अपने माता-पिता को वृद्धावस्था में छोड़ देता है !
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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जय श्रीराम