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श्रद्धा -लड्डू गोपाल

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श्रद्धा :-लड्डू गोपाल

एक लड़की थी……उसे अपने घर के संस्कारो की वजह से लड्डू गोपाल की भक्ति मिली…उस लड़की की बड़ी आस्था थी लड्डू गोपाल में….वह लड़की हमेशा वृन्दावन जाती थी और लड्डू गोपाल के दर्शन कर के आती थी….!

धीरे धीरे वह बड़ी होती रही पर उसने वृन्दावन जाना नहीं
छोड़ा…उसकी शाद्दी हो गयी, बच्चे हो गए, वो भी बड़े हो गए, उनकी भी शादी हो गयी..पर उस लड़की का नियम कायम था……!

एक दिन जब वो लड़की बहुत बुड़िया हो गयी और उसके बसकी चलना नहीं रहा…..वो वृन्दावन जाकर लड्डू गोपाल की एक मूर्ति ले आई…..और घर में रह कर ही उनकी पूजा करने लगी…..!

एक दिन पूजा करने के बाद उस बुड़िया ने अपनी बहु से कहा की, बहु इस मूर्ति तो अंदर वाले कमरे में रख दे….बहु उस मूर्ति को लेकर अंदर गयी पर गलती से उस से वोह मूर्ति छूट गयी….बड़ी जोर के आवाज हुई….!

बुड़िया घबराई घबराई से चिल्लाई, क्या हुआ बहु…..बहु बोली, कुछ नहीं माँ जी केवल मूर्ति गिर गयी है……यह सुन कर बुडिया जोर जोर से रोने लगी……वो रो रो कर यही चिलाये जा रही थी की कोई जाओ औरजाकर डॉक्टर को बुलवाओ….मेरे लड्डू गोपाल को चोट लग गयी….मेरे लड्डू गोपाल को चोट लग गयी…….!

पहले तो बहु ने सोचा के बुड़िया नाटक कर रही है……….पर जब काफी देर हो जाने के बाद भी वोह चुप नहीं हुई तो बहु को
लगा की बुड़िया पागल हो गयी है…..अक्सर बुड़ापे में लोग सठिया जाते है……शाम को जब बुड़िया का बेटा घर आया और उसे बहु ने सब समझाया तो उसे भी लगा की माँ सचमुच पागल हो गयी है……भला मूर्ति के लिए भी कोई डॉक्टर आता है…….!

फिर उसे अपने बच्चो का ख्याल आया….और उस ने निश्चय किया की माँ को पागल खाने भेजना पड़ेगा….नहीं तो माँ के पागलपन का असर मेरे बच्चो पर भी पड़ सकता है….!

वहां पास में ही एक समझदार आदमी रहता था…..जब उसके कानो तक यह बात पहुची तो उसने, उस माँ के बेटे को बुलाया और उसे समझाया की, देखो बेटा बुड़ापा और बचपन दोनों एक जैसे होते है…जो आदते बचपन में होती है वो ही बुड़ापे में…..तू एक काम कर जा और एक डॉक्टर को बुला ला…..उसे पहले से ही समझा दियो की तुझे एक मूर्ति का चेकअप करना है..और बाद में यह बोलना है की मूर्ति तो ख़तम हो गई और उस में अब जान बाकि नहीं है……!

जब उसे पैसे मिलेंगे तो भला उसे क्या दिक्कत होगी यह कहने में…..इस तरह तुम्हारी माँ को पागल खाने भी नहीं जाना पड़ेगा और और उसकी जिद्द भी पूरी हो जायेगी…!

बेटे को बात समझ में आ गयी….वो गया और जैसा उस आदमी ने बताया था एक डॉक्टर को समझा दिया…….डॉक्टर भी राजी हो गया……..!

अगले दिन डॉक्टर उस बुड़िया के घर गया……और घर में घुसते ही बोला अरी बुड़िया कहा है तेरे लड्डू गोपाल…बुड़िया ने मूर्ति को दिखाते हुए कहा, आओ डॉक्टर साहब आओ…..देखना जरा क्या हो गया मेरे लड्डू गोपाल को…..डॉक्टर दूर से ही बोला…….अरी बुड़िया इस में तो जान बाकि नहीं है…….यह तो ख़तम हो गई….!

बुड़िया को गुस्सा आ गया……..बुड़िया ने डॉक्टर से पूछा क्यों रे डॉक्टर कितने साल हो गए तुझे डाक्टरी करते हुए……डॉक्टर सकपकाया…..और बोला 40 साल पर क्यों…..??

बुड़िया ने कहा की इतने साल हो गए तुझे डाक्टरी करते हुए पर
इतना समझ नहीं आया की मरीज को हाथ लगाये बिना उसकी बीमारी का पता नहीं चलता…….डॉक्टर को लगा की वो कुछ ज्यादा ही जल्दी अपना काम ख़तम कर रहा है……उस ने जा कर मूर्ति की हाथ के नब्ज देखि……और कहा की ले माँ कुछ नहीं है तेरे लड्डू गोपाल में…..बुडिया बोली बेटा सही से देख….ऐसा नहीं हो सकता……डॉक्टर ने इस बार छाती को चेक कर के देखा…..और फिर बोला माँ कुछ नहीं है अब तेरी मूर्ति में…..यह ख़त्म हो गयी…….बुड़िया ने कहा की बेटा वोह जो मशीन होती है न तुम्हारे पास उस से चेक कर के देख……डॉक्टर समझ गया की बुडिया स्तेथोस्कोपे की बात कर रही है….!

अब उस को पैसे मिले थे तो उसे क्या दिक्कत थी वोह भी लगा कर चेक करने में…….जवाब तो उसे पता ही था……..उस डॉक्टर ने अपना स्तेथोस्कोप निकाला…..और उस को उस मूर्ति के छाती पर रखा…..मूर्ति में से जोर जोर के धक् धक् के आवाज आई……डॉक्टर घबरा गया……..उसने बार बार चेक करा…..और हर बार धक् धक् की आवाज आई………उस डॉक्टर ने उस बुडिया के पैर पकड़ लिए और बोला की माँ यह जो दुनिया तुझे पागल कहती है असल में यह दुनिया पागल है….

जो इस मूर्ति के पीछे छुपी तेरी भावनाओ को नहीं देख सकी….इस मूर्ति में जान नहीं थी यह तो तेरी श्रद्धा थी की इस मूर्ति में भी जान आ गयी…..

जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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