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मन चंगा तो कटौती मे गंगा

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मन चंगा तो कठौती में गंगा

एक समय की बात है। एक परिवार में पति-पत्नी और उनके बेटे-बहू रहते थे। सबका जीवन सुख-शांति से चल रहा था। कुछ वर्षों बाद सास-ससुर ने गंगा स्नान करने का विचार बनाया। उन्होंने तय किया कि वे अकेले ही काशी जाएंगे। बहू-बेटे को साथ ले जाने का कोई विचार नहीं किया।
बहू के मन में यह बात खटकने लगी। उसने सोचा, “भगवान, ऐसा कौन सा पाप किया है मैंने कि गंगा स्नान से वंचित रह रही हूँ?”……सास-ससुर जब गंगा स्नान के लिए तैयारी कर रहे थे, तो बहू ने सास से कहा, “माँ सा, आप अपनी यात्रा और गंगा स्नान का आनंद लें। घर की चिंता बिलकुल मत कीजिए। शायद मेरे अशुभ कर्मों का फल है जो मैं आपके साथ नहीं जा पा रही।”

सास-ससुर काशी के लिए रवाना हो गए। इधर, बहू बार-बार यही सोचती रही, “काश, मेरे भी पुण्य कर्म होते तो मैं भी गंगा स्नान कर सकती।” वह घर में रहकर अपने मन को समझाने की कोशिश करती रही। जब सास गंगा में स्नान कर रही थी, तभी अचानक उसे घर में रखी अलमारी की याद आ गई। वह मन ही मन सोचने लगी, “अलमारी को बंद करना भूल गई हूँ। पता नहीं बहू मेरे गहनों का क्या करेगी।” यह चिंता उसे इतनी सताने लगी कि गंगा स्नान के दौरान उसका ध्यान बार-बार घर की ओर ही जा रहा था। इसी बीच, उसके हाथ से अँगूठी फिसलकर गंगा में गिर गई। अब उसकी चिंता और बढ़ गई।

उधर, घर पर बहू का मन सास-ससुर की यात्रा को लेकर विचारमग्न था। उसने सोचा, “सासु माँ कितनी भाग्यशाली हैं जो गंगा स्नान कर रही हैं। मैं अपने अशुभ कर्मों के कारण यह अवसर नहीं पा सकी।” तभी उसे एक विचार आया। वह एक कठौती में पानी भरकर उसे गंगा जल मानकर स्नान करने बैठ गई। जैसे ही उसने कठौती में स्नान किया, उसके हाथ में अचानक सास की अँगूठी आ गई।

वह हैरान रह गई और सोचने लगी, “यह अँगूठी यहाँ कैसे आई? यह तो सासु माँ पहनकर गई थीं।” उसने अँगूठी को संभालकर अलमारी में रख दिया और निश्चय किया कि सासु माँ के लौटने पर उन्हें लौटा देगी।

सास-ससुर जब यात्रा से लौटे, तो बहू ने उनसे कुशल-क्षेम पूछी। सास ने जवाब दिया, “बहू, यात्रा और गंगा स्नान तो कर लिया, लेकिन मन बिल्कुल नहीं लगा।”

बहू ने पूछा, “क्यों माँ? मैंने तो आपको कहा था कि घर की चिंता मत कीजिए।”

सास ने कहा, “गंगा स्नान करते वक्त मेरा ध्यान बार-बार घर की अलमारी में अटका हुआ था। इसी बीच, मेरे हाथ से अँगूठी गिर गई। इसलिए यात्रा का सुख नहीं मिला। इतना कहते ही बहू ने अलमारी से वही अँगूठी निकाली और सास को देते हुए पूछा, “क्या यह वही अँगूठी है?” सास ने हैरानी से कहा, “हाँ, लेकिन यह तुम्हारे पास कैसे आई?”

बहू ने सारी घटना बताई और कहा, “मैंने कठौती में गंगा मानकर स्नान किया, और यह अँगूठी मुझे वहीं मिली।”

सास ने बहू को समझाया, “बहू, गंगा स्नान तो शरीर करता है, लेकिन असली स्नान मन का होता है। मेरा मन घर की चिंताओं और बुरे विचारों में उलझा था। इसलिए गंगा स्नान का फल भी नहीं मिला। तुम्हारा मन पवित्र था, इसलिए मेरी अँगूठी भी तुम्हारे पास पहुँच गई।

इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि सच्ची पवित्रता मन की होती है। बाहरी गंदगी को तो हम तुरंत साफ कर देते हैं, लेकिन मन की गंदगी – जैसे काम, क्रोध, लोभ, मोह – हमें भीतर से अशांत कर देती है। यदि हमारा मन पवित्र और निश्छल हो, तो हर स्थान गंगा समान हो जाता है। इसलिए बाहर से अधिक, भीतर की शुद्धता पर ध्यान देना चाहिए।
जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
सामान्य (ऑर्डिनरी) इंसान की असमान्य (एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी) इंसान बनने की यात्रा

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