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सहारा- ज्योति जो आ गई

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सहारा ज्योति जो आ गई

गर्मियों की छुट्टियों में 15 दिन के लिए मायके जाने के लिए पत्नी ज्योति और दोनों बच्चों को रेलवे स्टेशन छोड़ने गया तो मैडमजी ने सख्त हिदायत दी।  माँजी-बाबूजी का ठीक से ध्यान रखना और समय-समय पर उन्हें दवाई और खाना खाने को कहियेगा।

 हाँ.. हाँ..ठीक है..जाओ तुम आराम से, 15 दिन क्या एक महीने बाद आना, माँ-बाबूजी और मैं मज़े से रहेंगे..और रही उनके ख्याल की बात तो…मैं भी आखिर उनका बेटा हूँ , (मैंने भी बड़ी अकड़ में कहा)

ज्योति मुस्कुराते हुए ट्रैन में बैठ गई,  कुछ देर में ही ट्रेन चल दी..उन्हें छोड़कर घर लौटते वक्त सुबह के 08.10 ही हुए थे तो सोचा बाहर से ही कचोरी-समोसा ले चलूं ताकि माँ को नाश्ता ना बनाना पडे।घर पहुंचा तो माँ ने कहा… तुझे नहीं पता क्या..? हमने तला-गला खाना पिछले आठ महीनों से बंद कर दिया है.. वैसे तुझे पता भी कैसे होगा, तू कौन सा घर में रहता है।

आखिरकार दोनों ने फिर दूध ब्रेड का ही नाश्ता कर लिया..!! नाश्ते के बाद मैंने दवाई का डिब्बा उनके सामने रख दिया और दवा लेने को कहा तो माँ बोली। हमें क्या पता कौन सी दवा लेनी है , रोज तो बहू निकालकर ही देती है।

मैंने ज्योति को फोन लगाकर दवाई पूछी और उन्हें निकालकर खिलाई। इसी तरह ज्योति के जाने के बाद मुझे उसे अनगिनत बार फोन लगाना पड़ा, कौन सी चीज कहाँ रखी है, माँ-बाबूजी को क्या पसन्द है क्या नहीं, कब कौन सी दवाई देनी है, रोज माँ-बाबूजी को बहू-बच्चों से दिन में 2 या 3 बार बात करवाना, गिन-गिन कर दिन काट रहे थे दोनों, सच कहूँ तो माँ-बाबूजी के चेहरे मुरझा गए थे, जैसे उनके बुढ़ापे की लाठी छीन ली हो किसी ने।

बात-बात पर झुंझलाना और चिड़ -चिड़ापन बढ़ गया था उनका, मैं खुद अपने आप को बेबस महसूस करने लगा, मुझसे उन दोनों का अकेलापन देखा नहीं जा रहा था।

आखिरकार अपनी सारी अकड़ और एक बेटा होने के अहम को ताक पर रखकर एक सप्ताह बाद ही ज्योति को फोन करके बुलाना पड़ा। और जब ज्योति और बच्चे वापस घर आये तो दोनों के चेहरे की मुस्कुराहट और खुशी देखने लायक थी, जैसे पतझड़ के बाद किसी सूख चुके वृक्ष की शाखा पर हरी पत्तियां खिल चुकी हो। और ऐसा हो भी क्यों नही…आखिर उनके परिवार को अपने कर्मों से रोशन करने वाली उनकी ज्योति जो आ गई थी।

मुझे भी इन दिनों में एक बात बखूबी समझ आ गई थी और वो यह कि…!! “वृद्ध माता-पिता के बुढ़ापे में असली सहारा एक अच्छी बहू ही होती है… ना कि बेटा”

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जय श्रीराम

Lalit Tripathi
the authorLalit Tripathi
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